महाभारत
महाभारत, अब कुरुक्षेत्र में नहीं वरन, हर घर में लड़ी जा रहा है,
युद्धक्षेत्र की लड़ाई मानो,मन में चली आ रहा है।
था वो चचेरे-तयेरे भाइयों के मध्य लेकिन,
अब तो सगों के भीतर घर करती जा रहा है।
खून पानी बन रहा है,और रिश्ते तार-तार,
आसरा जिसको समझते करते वो पीछे से वार।
युद्ध होते थे नियम से, अब नियम हैं ताक पर,
अब न रोते हैं सगे भी, खुद सगों की लाश पर।
हमने सुना था सिर दशानन के थे दस और दो हाथ,
पर अब दुशासन के हो गए हैं हजारों-लाखों हाथ।
लाज कृष्ण ने आ कर बचाई द्रोपदी की सुन कर पुकार,
आज लूटी जा रही है हर अहल्या, सीता, द्रोपदी सब सरे-राह।
उस युग में था बस एक ही धृतराष्ट्र व एक ही गांधारी ,
पर आज बांध बैठे हैं पट्टी आँख पर हर पिता-महतारी।
क्या किसी “कान्हा” के आने के आने का हमें है इंतज़ार,
क्यों ना खुद बन कृष्ण जैसे हम उठाये “नारी”रक्षा का भार?
खुद ही लड़नी होगी “महाभारत”हमारी हमें सुन “पूर्णिमा”
क्योंकि बसते हैं कान्हा हमी में बन कर हमारी आत्मा।
— पूर्णिमा शर्मा
सुंदर सृजन दी |
बहुत-बहुत आभार शशि शर्मा “ख़ुशी ” !