कविता

जानूँ मैं

हृदय छुपी इस प्रेम अग्नि में जलन है कितनी जानूँ मैं।
मैं भटक रहा प्यासा इक सावन विरह वेदना जानूँ मैं।

पर्वत,घाटी,अम्बर,नदिया जल सब नाम तुम्हारा लेते हैं।
अम्बार लगा है खुशियों का फिर भी अश्रु क्यूँ बहते हैं?

मिथ्या दोषी मुझे कहने से क्या प्रीत मिटेगी बरसों की
नयन कह रहे थे जो तुम्हारे वो बात अनकही जानूँ मैं।

कुछ तो विवशता रही तुम्हारी शीष झुका कर दूर गए।
इक छोटा सा स्वप्न सजाया तुम कर के चकनाचूर गए।

पुनः मिलन को आओगे तुम विश्वास का दीप जलाया है
थमने न दोगे श्वांस की गति को प्रीत है कितनी जानूँ मैं।

वैभव”विशेष”

वैभव दुबे "विशेष"

मैं वैभव दुबे 'विशेष' कवितायेँ व कहानी लिखता हूँ मैं बी.एच.ई.एल. झाँसी में कार्यरत हूँ मैं झाँसी, बबीना में अनेक संगोष्ठी व सम्मेलन में अपना काव्य पाठ करता रहता हूँ।

2 thoughts on “जानूँ मैं

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सुंदर रचना

    • वैभव दुबे "विशेष"

      धन्यवाद आदरणीया और भी अच्छा लिखने का प्रयास करूँगा

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