विश्व – वर्तमान परिपेक्ष्य में
वर्तमान में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो अर्थलोलुपता में कहीं से भी पीछे होगा और उस पैसे का उपयोग अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं पर नहीं खर्चना चाहता होगा | बेशक, आर्थिक स्रोत मानवीय हो या अमानवीय | इसके निमित्त शारीरिक श्रम कम और माने मूल्यों का ह्रास ही क्यों न होता हो | वर्तमान परिदृश्य में और ख़ास कर मेरी नजर में मुख्यतया तो तीन क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ से आर्थिक सम्पन्नता के द्वार खुलते हैं | पहला – हथियार, यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ लागत मूल्य से बीसियों हजार गुना लाभ लिया जा रहा है |
भारत जैसे विकासशील देशों से खनीज सम्पदा साहूकारी के एवज में औने-पौने कीमत पर खरीदकर उन्हीं के श्रम और आधुनिक विज्ञान की सहायता से लडाकू विमान तथा एनी हथियारों को निर्मित्क्र खरीदने को मजबूर किया जाता है | विश्व के कई ऐसे देश हैं जिन्हें पडोस से भय दिखाकर या अस्तित्व रक्षा के निमित्त हथियार खरीदने को बाध्य किया जाता है, बतौर कर्ज ही सही बेचा जा रहा है | अगर विकासशील देश स्वनिर्मित हथियारों का परीक्षण भी करता है तो उस पर कई तरह के प्रतिबन्ध उन देशों द्वारा लगा दिए जाते हैं | लक्ष्य बस एक कि किसी तरह उनका वर्चस्व इस क्षेत्र में बना रहे |
यहाँ विचारणीय प्रश्न है कि विश्व के तथाकथित बड़े-बड़े आयुध निर्माता देश आपस में कभी भी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से वर्तमान तक कभी कोई युद्ध नहीं करते | अगर इतिहास देखें तो इन देशों के अलावे विश्व में लगभग पौने चार सौ छोटे-बड़े युद्ध हो चुके हैं और चल भी रहे हैं| बात यहीं तक रुकती तो भी कुछ कम करके आंका जा सकता था | मगर, षड्यंत्र का सूत्र तो इससे भी आगे बहुत दूर तक जाता है | इस तरह के व्यापार में प्रतिद्वन्द्विता के फलस्वरूप किसी भी खरीददार देश के सत्ता की नींव हिलाने के खातिर ये हथियार के सौदागर आतंकवाद, फिरकापरस्ती तथा अराजकतावादी तत्त्वों को भी आर्थिक सहायता और हथियार बेचने से बाज नहीं आते | यह एक बड़ा मुख्य कारण हैं आतंकवादियों को फलने-फूलने और बढने का, जिससे सारी दुनिया त्रस्त और पस्त है |
ऐसे षड्यंत्रों को एन० जी० ओ० के माध्यम से लोक-सेवा के नाम पर बखूबी किया जा रहा है | जिसमें पहले समाज में सेवा के नाम पर वैचारिक और मानसिक रूप से तैयार किया जाता है जो भविष्य में हित साधन में वैचारिक रूप से सक्रिय भूमिका अदा करता रहे और उनकी मंशा पूरी होती रहे | ऐसे ही देश एक ओर शान्ति की दुहाई देते नहीं थकते साथ ही हथियारों बिक्री कर अशांति में मुख्य भूमिका भी अदा करते हैं | उद्देश्य केवल और केवल हथियारों का व्यापार, जिसमें मनमाना आर्थिक लाभ निहित है | चाहे खरीद्दर आतंकवादी ही क्यों न हों | नहीं तो क्या कारण है की उन आतंकवादी संगठनों के पास अत्याधुनिक हथियारों के जखीरे प्रमाण स्वरूप मौजूद हैं | ऐसे कई उदाहरणों से विश्व इतिहास पटा पड़ा है | अब तो बात परमाणु अस्त्रों को भी हथियाने की बात आतंकवादी संगठनों द्वारा की जाने लगी है |
आखिर इन परिस्थितिजन्य समस्याओं को कब तक किसी भी सत्ता द्वारा नजरंदाज किया जाता रहेगा | अगर सत्ता और उसके व्यवस्था तन्त्र चंद आर्थिक लाभ के लिए अपने कर्तव्यों की बलि चढाते रहेंगे तो कोई भी देश विखंडित होने से क्या बच पायेगा ? आज मानवता के हित में आवश्यक है प्रत्येक देशवासी को इन षड्यंत्रों पर पैनी निगाह रखने की तब ही राष्ट्र विकसित और समृद्ध हो सकेगा |
इसी शोषण के दूसरी कड़ी के रूप में व्यवहृत है “दवाओं का व्यापार” जो हथियारों से थोड़ा कम लाभप्रद है मगर, इसमें भी मनमानी कमाई है | इसलिए भी चिकित्सा के क्षेत्र में इस व्यापार को दूसरा दर्जा प्राप्त है, जिसमें एक अहम भूमिका एक चिकित्सक, दवा एजेंट के रूप में कार्यरत हैं | जो वर्तमान काल में अधिकांशत: परिलक्षित है | इनके शिक्षा का आधार ही चिकित्सा कम शोषण अधिक, बेशक शोषित के सांस बचे या न बचे, इन्हें तो घर-द्वार, बेचवाकर भी आर्थिक लाभ स्वयं और अपने आका (दवा निर्माता) को लाभ पहुंचाना है | ऐसे चिकित्सा क्षेत्र की सारी व्यवस्था कमीशनबाजी के कड़ी के रूप में आम जनता से सत्ता तक कार्यरत है |
इसी षड्यंत्र के तहत लोगों का बीमार और रोगग्रस्त होना भी जरूरी मानकर, उपज बढाने के नाम पर भिन्न-भिन्न प्रकार के रसायनिक खाद और हानिकारक दवाओं का छिडकाव आवश्यक माना गया | परिणाम स्वरूप खाद्य सामग्रियों को विषाक्तकर बड़ी जनसंख्या को बीमार और रोगग्रस्त करने के अभियान में सत्ता भी कार्यरत प्रतीत होता है | चाहे आयोडीन नमक से लेकर शीतल-पेय और समस्त खाद्य सामग्री के साथ अन्य उपभोक्ता सामग्री ही क्यों हो |
जिन उपभोक्ता सामग्रियों को विश्व के लगभग सभी देशों ने स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिबंधित कर रखा है | वही सामग्री प्राय: सभी विकासशील देशों में धडल्ले से बेची जा रही है और हमारे देश भारत का एक सौ पचीस करोड़ आवादी तो निर्विघ्न चारागाह बना हुआ है जहां छद्म आर्थिक लाभ के निमित्त सता का भी भरपूर सहयोग प्राप्त है क्योंकि सत्ता भी उन्हीं के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रह गयी है |
शारीरिक पीड़ा ही एक ऐसी कमजोरी हे मनुष्य के लिए जिससे निजात पाने को आदमी कुछ भी करने को तैयार रहता है और इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठाकर मौत के व्यापारी भरपूर लाभ सता और चिकित्सक के सहयोग से उठा रहे हैं | जबकि सतरहवीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा कराए गये एक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से स्पष्ट है की देश की ९८% प्रतिशत लोग स्वस्थ्य थे और खुशहाल भी | ऐसे अभियान को विकास का नाम देकर आखिर हम कितना विकसित हो रहे हैं, जबकि ९९% लोग किसी न किसी रोग से ग्रसित हैं और अपने जीवन भर की कमाई से चंद विदेशियों का घर भरने को मजबूर हो रहे हैं |
औद्योगीकरण और विकास के नाम पर पर्यावरण-प्रदूषण, बेरोजगारी और रोग के सिवा इस देश को मिला ही क्या है ? और अंतहीन आर्थिक दोहन की अगली कड़ी के रूप में शिक्षा को अति विशिष्ट श्रेणी प्राप्त है जिसका एक मात्र उद्देश्य दोहन और शोषण की मानसिकता से ग्रस्त पौध, विकास के नाम पर तैयार करना |
इन्ही षड्यंत्र के तहत आधुनिक और विकसित कहलाने की छवि संजोये, भारतीय शिक्षा पद्धति और राष्ट्रीयता से दूर ले जानेवाले कान्वेंट स्कूलों से अपने बच्चे को शिक्षा दिलवाकर गुलामी की मानसिकता को ही विकसित करने की होड़ सी मची है | जबकि कान्वेंट का अर्थ उन बच्चों का शिक्षा केंद्र से है जो अनाथ हैं या जिनके माता-पिता का पता ही नहीं है | और हमारे देश के तथाकथित सभी विकसित लोग जीते-जी अपने बच्चो को अनाथपने का एहसास बचपन से ही कराने को अमादा दीखते हैं | क्योंकि अंगरेजों द्वारा “ट्रेड” शब्द का अर्थ हमें व्यापार समझाया गया जबकि उन्हीं की मान्यता के अनुसार “लूट-मार” रहा |
और इसी लूट-मार से मुफ्त में अर्जित धन को शिक्षा और सुविधाओं के नाम पर लुटाने में क्यों तकलीफ होगी | कोई श्रम से अर्जित धन तो है नहीं | उद्देश्य एक मात्र – पढ़-लिखकर बच्चा कोई अच्छी नौकरी पा लेगा यानी किसी न किसी की दासता स्वीकार कर लेगा | इसी मानसिकता के तहत गुलामी की शिक्षा अंगरेजी का महत्त्व सार्वजनिक जीवन में बढ़ता जा रहा है | फिर भी लोग भारतीय संस्कारवश बच्चों से भारतीय संस्कारों की उम्मीद में वृद्धाश्रम में भी विक्षिप्तता अकेलेपन का जीवन गुजारने को मजबूर हैं |
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न विकरालता से और खड़ा होता है कि लाखों खर्च के बाद या घर-द्वार और खेतिहर जमीन को गिरवीं या बेचकर या फिर बैंकों से कर्ज लेकर भी यदि किसी नमूने नौकरी पा भी लेता है तो शोषिक वर्ग द्वारा इतनी ही पारिश्रमिक पाता है जिससे घर-परिवार तो दूर अपना भी गुजर-वसर आभाव में ही कर पाटा है उस पर शिक्षा के लिए ऋण का सूद चुकाना तो दूर की कौड़ी | परिणाम पति-पत्नी दोनों के लिए आर्थ उपार्जन की लाचारगी के फलस्वरूप नियोक्ता के इशारे का मात्र कठपुतली बनने के अलावे और कोई दूसरा चारा भी नहीं |
यानी प्रतिरोधक क्षमता का नाश, जो आज का प्रमुख कारण प्रतीत होता है, जिसके आग में आदमी खुद ही खुद के आग में झुलसता है और उफ्फ तक नहीं कर पाता | और इसी लाचारगी में परिवार के टूटने के कई उदाहरण समाज के सामने है | उस पर तुर्रा ये कि नियोक्ता द्वारा शोषण के अभियान का हिस्सा बनने को मजबूर इंसान आखिर करे तो क्या करे | ऐसे ही चक्रव्यूह में एक सौ पच्चीस करोड़ की आवादी वाला हमारा देश भारत फिर से तथाकथित आंशिक आजादी को भी खोने को बाध्य होता जा रहा है |
आज फिर से जरूरत है देश को निरोगी काया की | स्वाभिमानी शिक्षा की, न कि बीमार और गुलाम बनाने के शिक्षा की | पश्चाताप के आंसू पोंछकर अपनी प्राचीन चिकित्सा और शिक्षा पद्धति के प्रोत्साहन हेतु सत्ता और प्रत्येक भारतीय को आगे आने की नितांत आवश्यकता है | तबी ही भारत फिर से विश्व गुरु के सम्मान से सम्मानित हो पायेगा |
— श्याम “स्नेही” शास्त्री