जाएँ कहाँ
जब इंसानो की बस्ती में
जा पंहुचा भटका एक परिंदा।
कई चेहरे चिढ़ कर बोल उठे
न जाने कहाँ का है बाशिंदा?
कुछ नज़रें हैं हिकारत भरी
कुछ नज़रों में शिकायत है।
मगर कुछ नज़रों में दया दिखी
शायद इंसानियत अभी है जिन्दा।
भूखा प्यासा व्याकुल वो
गिर पड़ा जमीं पर आकुल हो।
कुछ हृदय बोले अतिथि देव है
फिर चाहे उसका कोई कुल हो।
एक आह भरी उसने हौले से
कर ली अपनी आँखे बन्द।
खो गया अतीत की दुनिया में
जब पवन बह रह थी मन्द-मन्द।
यहीं इसी जगह एक वृक्ष पर
उसका छोटा सा था आशियाना।
आज वहीं पे अतिथि बनकर लेटा
और सांसे भी रह गई हैं चन्द ।
वृक्ष काट कर बन गया महल
जिसमें इंसानो की चहल पहल।
जाये तो आखिर जाये कहाँ वो
परिंदे का दिल गया दहल।
अपने ही घर में बेगाना किया
इंसानो तुमने ये क्या किया?
प्राण पखेरू उड़ गए परिंदे के
शांत हो गया सब कोलाहल।
वैभव”विशेष”