नज़्म
धीरे-धीरे वो दिल में समाने लगे
दूर थे अब तलक पास आने लगे
अपनी क़ातिल अदा से लुभाने लगे
ख़्वाब में रात-भर वो सताने लगे
देखकर उनका रुख़सारे-जल्वा-ए-नूर
चाँद-तारे भी अब मुँह छुपाने लगे
सुर्ख़-लब के फड़कते ही बेसाख़्ता
पर तितलियों के भी थरथराने लगे
खुलते ही उनके गेसू, घटा छा गई
मेघ ख़ुशियों की बूंदें गिराने लगे
मैकदे की मुझे अब ज़रूरत नहीं
शरबती-चश्म से मय पिलाने लगे
ऐ ख़ुदा उनसे फ़ौरन मिला दे मुझे
‘भान’ इक पल भी, जैसे ज़माने लगे
— उदय भान पाण्डेय ‘भान’
सुंदर नज़्म