सर्द रात की ठिठुरन में….
सर्द रात की ठिठुरन में भी जीना सीख लिया उसने।
आंसू के धारे सा हर गम पीना सीख लिया उसने।
आग उगलती दोपहरी में नंगे पांव झुलस लेता है।
बेदर्दो की दुनियां में यूं जीना सीख लिया उसने॥
कापी और कलम के बदले हाथो में जूठे बरतन है।
मां की प्यारी गोद नही है सडको पर भटका जीवन है।
कहीं पे महलो की रंगत में आनंदो के भोग सकल है।
कहीं एक रोटी की खातिर ढाबों पर बिकता बचपन है॥
कुत्ते कोट पहनते है इन्सानी बचपन नंगा है।
सब दौलत का खेल यहां है,सब ताकत का दंगा है।
ईश्वर तेरी दुनियां मे इंसान इंसान नही दिखते।
कुछ लोगों का तन नंगा है, पर कुछ का मन भी नंगा है
सतीश बंसल
उत्तम कविता
शुक्रिया सर…