सिसकियां…
घरों से सिसकियों की आवाजें, आती हैं हर रोज
बेटियां दहेज की खातिर, जलाई जातीं हैं हर रोज।
तुझे आजादी का सूरज कहूं भी, तो कैसे कहूं
बेटियों की दरिन्दगी से नोची हुई, लाशें पाई जाती हैं हर रोज॥
चार दीवारी की घुटन में जाने कितनें सपनें दम तोडतें हैं, हर रोज
और जाने कितने युवा, समाज की झूठी शान का कफन ओढतें हैं, हर रोज
जानें कितनी कितनी बेटियां आज भी अपनों के हाथ दफनां दी जाती है
जानें कितनें अहसास घुट कर दम तोडतें हैं, हर रोज॥
श्रृष्टा तलाशती है अपना वजूद समाज के अंधेरों में, हर रोज
वहशियत झांकती है, इन्सानी डेरों में ,हर रोज।
कब बचाये अपने पाक दामन को, वहशी दरिन्दों से
बेटी पुकारती है आजादी की रोशनी को, हर रोज॥
घरों से सिसकियों की आवाजें, आती हैं हर रोज
बेटियां दहेज की खातिर, जलाई जातीं हैं हर रोज।
तुझे आजादी का सूरज कहूं भी, तो कैसे कहूं
बेटियों की दरिन्दगी से नोची हुई, लाशें पाई जाती हैं हर रोज….
सतीश बंसल
बेहद मार्मिक
मार्मिक रचना सर
हृदय को छू गई
आभार वैभव जी..