ग़ज़ल
दर है न मकाँ है न मकानों का मकीं है
इस दश्त में लगता है कोई अपना नहीं है
हैं और भी कौनेन में सय्यारे हज़ारों
लेकिन यह ज़मीं सिर्फ़ मुहब्बत की ज़मीं है
इस इश्क़ ने शाही भी फ़क़ीरी में बदल दी
जूता भी जो पाओं में नहीं है तो नहीं है
खुद मौजों से टकरा के किनारे पे लगेंगे
गर दाब-ए-बला में कोई इल्यास नहीं है
हम लज़्ज़त-ए-गिरियाँ का मज़ा कैसे बतायें
अश्क़ों में तबस्सुम है मसर्रत में ज़बीं है
सुन ले मेरे नग़मात का पैग़ाम ख़ुदारा
हर शे’र का हर लफ्ज़ तसव्वुर के क़रीं है
हर हाल में बस शुक्र ख़ुदा का है लबों पर
मैं दुख़तर-ए-साबिर हूँ मेरा सब्र हसीं है
क्यों ‘प्रेम’ को इक जुर्म समझती है यह दुनिया
जब ज़ेर-ए-क़दम प्रेम के हर ताज-ओ-नगीं है
–प्रेम लता शर्मा
सुंदर गज़ल