आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 42)
‘कपिल’ को पुनः प्रेम-रोग
मैं अपनी ससुराल में एक भतीजे ‘कपिल’ के प्रेम-रोग के बारे में पीछे लिख चुका हूँ। वह अपनी महरी के चक्कर में पड़ गया था, जिससे बड़ी मुश्किल से मैंने निकाला। अब वह ब्रश बनाने की एक फैक्टरी चलाता है। प्रारम्भ में जहाँ उसकी फैक्टरी लगी थी, उसी मोहल्ले में सामने रहने वाली एक लड़की से उसकी आँख लड़ गयी। दुर्भाग्य से वह भी नीची मानी जाने वाली चमार (चर्मकार) जाति की थी। उस लड़की को किसी भी हालत में ‘कपिल’ के घर वाले स्वीकार नहीं कर सकते थे। यह बात ‘कपिल’ भी अच्छी तरह जानता था, लेकिन दिल तो दिल ही है, जिस पर आ गया, उस पर आ गया। इसमें दिल का क्या कसूर?
अगर मामला यहीं तक रहता, तो गनीमत थी। लेकिन दुर्भाग्य से ‘कपिल’ के छोटे भाई ‘मोहित’ को भी उस लड़की की छोटी बहिन से लगाव हो गया, यानी दोहरी मुसीबत। वे दोनों भाई मिलकर फैक्टरी चलाते थे, इसलिए आत्मनिर्भर हो गये थे। पहले की तरह अपने पिता पर आश्रित नहीं थे। इसी बल पर वे परिवार से ही विद्रोह करने पर उतारू हो गये। उन्होंने पूरे समाज को ठुकराकर उन लड़कियों से कोर्ट मैरिज करने तक का निश्चय कर लिया था। उन्होंने उसी इलाके में लगभग एक किमी दूर एक फ्लैट भी किराये पर ले रखा था और अपना घर छोड़कर उसी में रहते थे।
वे अपने इरादों में सफल हो भी जाते, क्योंकि लड़कियों की माँ उनका साथ दे रही थी। लेकिन उन लड़कियों का बाप और भाई किसी भी तरह इन रिश्तों के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने लड़कियों का घर से बाहर निकलना तक बन्द कर दिया, जिससे उनमें बातें भी नहीं हो पाती थीं। लेकिन लड़के थे कि किसी भी हालत में मैदान छोड़ने को तैयार नहीं थे।
ऐसी हालत में लड़कों के घरवाले बहुत परेशान थे। परिवार वाले अन्य लोगों ने उन लड़कों को समझाने की कोशिश की, परन्तु वे किसी की बात भी सुनने को तैयार नहीं थे। जब मैं एक बार किसी काम से अकेला आगरा गया, तो मुझे सारी बातों का पता चला। उनका सारा परिवार घोर निराशा में डूबा हुआ था। लड़कों की माँ मेरे सामने आकर रोयीं कि मेरे दो-दो योग्य बेटे हैं और मुझे ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं। मुझे उन पर बड़ा तरस आया। इसलिए मैंने एक कोशिश करना तय किया, हालांकि मेरे ससुराल के दूसरे लोगों ने कहा कि आपकी कोशिशों का भी कोई परिणाम नहीं निकलेगा, क्योंकि वे किसी की बात सुनने को ही तैयार नहीं हैं। लेकिन मैं इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था, इसलिए अपनी कोशिशों में लग गया।
सबसे पहले तो मैंने छोटे भाई ‘मोहित’ से सम्पर्क किया और उससे कहा कि मैं तुम्हारी फैक्टरी देखने आना चाहता हूँ। वह मेरी ससुराल आकर खुशी से मुझे अपने साथ ले गया। संयोग से उसका बड़ा भाई ‘कपिल’ उस समय कहीं गया हुआ था। उसकी अनुपस्थिति में मैंने ‘मोहित’ से खुलकर बात की। मैंने सारी स्थिति जानी और समस्याओं को भी समझा। फिर मैंने उससे कहा कि तुम्हारे भैया को मैंने वचन दिया था कि यदि वह आत्मनिर्भर हो जाये, तो जिस लड़की से वह कहेगा और वह लड़की भी तैयार होगी, तो मैं उसकी शादी उसी से करा दूँगा। मैंने कहा कि मैं उस वचन पर अभी भी डटा हुआ हूँ और हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। इस पर वह खुश हो गया।
मैंने आगे कहा कि मैं तुम्हारे भाई की शादी कल ही आर्यसमाज मन्दिर में या कोर्ट में करा सकता हूँ। इसमें कोई मुश्किल नहीं है, लेकिन इसके बाद क्या होगा, यह भी तो सोचना पड़ेगा। तुम्हारे माँ-बाप तो फौरन तुमसे सम्बंध तोड़ लेंगे, यह तय है। सारे परिवार और रिश्तेदारों से भी सम्बंध टूट जाएगा। लड़की का बाप अलग समस्या करेगा। वह तुम्हारे खून का प्यासा हो जाएगा और कोई भी नुकसान पहुँचा सकता है। अगर तुम अपनी रक्षा कर भी लो, तो वह फैक्टरी का नुकसान कर सकता है। अगर फैक्टरी बरबाद हो गयी, तो तुम भी बरबाद हो जाओगे। इसलिए ऐसा कोई काम जिससे फैक्टरी को खतरा हो जाये करने से पहले हजार बार सोचना पड़ेगा।
इसके साथ मैंने उसे समझाया कि प्रेम विवाह फिल्मों में तो चलते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में नहीं चल पाते। साल-दो साल बाद जब प्रेम का बुखार उतर जाता है, तो जिन्दगी बहुत बोझिल हो जाती है। तुम्हारे जो बच्चे होंगे, उनको न तो दादा-दादी का प्यार मिलेगा और न नाना-नानी का। ऐसे बच्चों का विकास अच्छी तरह नहीं हो पाता।
मैंने उससे कहा कि तुम जो भी फैसला करो, खूब सोच-समझकर करना। मैंने उससे यह भी वायदा किया कि मैं हर फैसले में हर हालत में तुम्हारा साथ दूँगा। मैंने उससे लगभग डेढ़ घंटे बात-चीत की। फिर मैंने कहा कि अपना फ्लैट दिखाओ कैसा है। वह खुशी से मुझे उस फ्लैट पर ले गया, जो पास में ही था। फ्लैट वास्तव में बहुत अच्छा बना था और किसी छोटे परिवार के लिए बहुत आरामदायक था। मैंने कहा कि यदि तुम्हारे घरवालों की राजी से तुम्हारे भैया का विवाह हो जाये, तो इसमें तुम दोनों भाई बहुत आराम से रह सकते हो और अपने मम्मी-पापा को भी रख सकते हो, अगर वे आने को तैयार हो जायें।
उसका बड़ा भाई तब तक आया नहीं था। मैंने ‘मोहित’ से कहा कि मैं ‘कपिल’ से भी बात करना चाहता हूँ। यदि उसे समय मिले तो मेरी ससुराल में आ जाये। फिर मैं चला आया। मेरे आने के बाद ‘कपिल’ लौटा होगा और उसको ‘मोहित’ ने सारी बातचीत जरूर बतायी होगी। उसी दिन रात को ‘कपिल’ मुझसे मिला। मैंने अकेले में उससे काफी देर बात की और उसको भी संक्षेप में वही समझाया जो ‘मोहित’ से कहा था। उसने मुझसे सोचकर फैसला करने का वचन दिया।
‘कपिल’ के जाने के बाद उनके मम्मी-पापा से मेरी बात हुई। वे जानना चाहते थे कि मैं क्या बात करके आया हूँ। मैंने उनसे कहा कि मैंने आपके दोनों बेटों को समझा दिया है। मुझे विश्वास है कि वे एक-दो महीने में ही अपने आप आपके पास आ जायेंगे। आप बस इतना कर लीजिए कि ‘कपिल’ के लिए कोई अच्छी लड़की तलाश लीजिए। जब लड़की आपको पसन्द आ जाये तो ‘कपिल’ को राजी करने की जिम्मेदारी मेरी है। परिवार के दूसरे लोग कहने लगे कि लड़की कोई पेड़ पर तो लगती नहीं है कि तोड़ लें। मैंने कहा कि कोशिश तो की जा सकती है, लड़कियों का अकाल थोड़े ही पड़ गया है। कोशिश करते रहिए, कोई न कोई मिल ही जाएगी। इस पर वे संतुष्ट होकर चले गये। हालांकि उनको पूरा विश्वास नहीं हुआ था कि उनके बेटे उनके पास आ जायेंगे।
लेकिन मुझे यह कहते हुए बहुत प्रसन्नता है कि मेरा प्रयास बेकार नहीं गया। एक माह से भी कम समय में दोनों भाई अपने आप अपने घर वापस आ गये। किराये का फ्लैट भी उन्होंने छोड़ दिया। इसके 5-6 माह बाद ‘कपिल’ का विवाह भी तय हो गया। जिस लड़की से उसका विवाह तय हुआ था, वह बहुत अच्छी थी। लेकिन उसका बाप सही आदमी नहीं था। ‘कपिल’ के घरवालों को पता चला कि उसका होने वाला ससुर अपने बड़े दामाद को बहुत परेशान करता है और एक प्रकार से ब्लैकमेल करता है। इसलिए इन्होंने अपनी ओर से ‘कपिल’ का रिश्ता तोड़ दिया।
‘कपिल’ का विवाह इसके एक-डेढ़ साल बाद तब हुआ, जब मैं पंचकूला से लखनऊ आ चुका था। उसकी पत्नी बहुत सुन्दर और पढ़ी-लिखी है। उसका एक पैर थोड़ा छोटा है, जिससे कुछ लँगड़ाती है। इस कारण ‘कपिल’ पहले हिचक रहा था, लेकिन मेरे समझाने पर राजी हो गया। अब वह बहुत खुश है। वे दोनों पति-पत्नी मेरी बहुत इज्जत करते हैं। उन दोनों को खुश देखकर मुझे भी बहुत प्रसन्नता होती है। मैं ‘कपिल’ के विवाह में शामिल नहीं हो सका था, क्योंकि उन्हीं दिनों हम लोग दक्षिण भारत घूमने चले गये थे। इसके बारे में आगे लिखूँगा।
कुल्लू-मनाली भ्रमण
सन् 2009 में मई माह में हमारी योजना अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ कुल्लू-मनाली घूमने की बन गयी। वे पंचकूला आये और आस-पास के स्थान देखने के साथ ही कुल्लू-मनाली घूमने के लिए एक बड़ी टैक्सी की व्यवस्था कर ली, जिसमें ड्राइवर के अलावा 12 लोग सरलता से बैठ सकते थे। हमारे काफिले में 12 ही व्यक्ति थे- मैं, श्रीमती वीनू और पुत्री आस्था (मोना), मेरे छोटे साढ़ू श्री विजय कुमार जिंदल (विजय बाबू), उनकी पत्नी श्रीमती राधा (गुड़िया), उनकी पुत्री तन्वी, श्रीमती जी के भाई श्री आलोक कुमार गोयल, उनकी पत्नी श्रीमती कंचन, उनकी पुत्रियाँ अंशिका (सौम्या) और पर्णी (एकांशी) तथा पुत्र विश्वांग (सहज) एवं मेरे मँझले साढ़ू की पुत्री साक्षी (डाॅल)। हमारा पुत्र दीपांक हमारे साथ नहीं गया, क्योंकि उसकी पढ़ाई अधिक महत्वपूर्ण थी। उसको हमने अपने पड़ोसियों और उसके मित्रों के भरोसे छोड़ दिया। हमारी टैक्सी को एक सरदारजी चला रहे थे, जो कई बार उस ओर जा चुके थे।
निर्धारित समय पर हम पंचकूला से चंडीगढ़, कुराली, आनन्दपुर साहब, मंडी, कुल्लू होते हुए मनाली पहुँच गये। रास्ते में एक लम्बी सुरंग पड़ी। उससे होकर निकलने में बहुत अच्छा लगा। यह सुरंग सीधी नहीं है बल्कि भीतर से घुमावदार है। हमारी टैक्सी व्यास नदी के दायें किनारे-किनारे चल रही थी। व्यास नदी इस क्षेत्र की जीवन रेखा है। कुल्लू की प्रसिद्ध घाटी इसके दोनों ओर बसी हुई है, जो बहुत ही सुन्दर है।
कुल्लू से कुछ पहले रास्ते में हम भोजन के लिए रुके। वहीं पीछे व्यास नदी बह रही थी। मैं और मेरे साढ़ू उस दिन तब तक नहाये नहीं थे, शेष सभी लोग घर से नहाकर चले थे। इसलिए हम नदी में नहाये। नदी का पानी बहुत ठंडा था। विजय बाबू तो एक-दो मग पानी डालकर बाहर आ गये और मैं आराम से देर तक नहाया। इससे सारी थकान मिट गयी। फिर भोजन किया।
मनाली पहुँचने तक शाम हो गयी थी। वहाँ हमारे बैंक का होलीडे होम है। मैंने उसमें अपने लिए एक कमरा बुक करा लिया था। एक अन्य कमरा उसके बगल में ही हमने किराये पर ले लिया। दो कमरों में हम सबके सोने की व्यवस्था हो गयी। सब लोग बहुत थके हुए थे, इसलिए थोड़ा बाजार में घूमकर और भोजन करके सो गये।
आपके सार्थक कार्य के सफल होने की बहुत बहुत बधाई | किसी के जीवन में खुशियाँ बिखेरना सबसे सार्थक कार्य है |
विजय भाई ,कपिल और मोहित के लिए जो काम आप ने किया ,बहुत सराहनीय है ,एक परिवार को मुसीबतों से निकाल कर बहुत बड़ा उपकार उस खानदान पे किया है .कुल्लू मनाली की आप की सैर से मुझे भी बहुत पुरानी बात याद आ गई . १९६७ में हमारी शादी हुई थी और हम पहले चण्डीगढ़ गए थे जो मैं पेहले लिख चुक्का हूँ और इस के दो हफ्ते बाद हम अपने मामा जी के लड़के संतोख सिंह को मिलने सुन्दर नगर गए थे यहाँ संतोख सिंह शाएद इसी सुरंग पे इन्ज्नीअर लगे हुए थे और उस वक्त यह सुरंग बननी शुरू हुई थी , संतोख भाई हमें इस जगह ले गिया था और हम ने काम होता देखा था , दुसरे दिन भाई हमें मंडी ले गिया था और हम ने कुछ शौपिंग की थी ,मंडी के साथ एक छोटी सी नदी थी और हम नदी पर गए थे जो कुछ नीची सी थी . एक दिन हम ने कुलु मनाली जाने का प्रोग्राम बनाया था ,भैया के पास एक जीप थी लेकिन हम जा नहीं सके किओंकि धर्मपत्नी बीमार पड़ गई थी . आप की सैर से मेरी भी याद ताज़ा हो गई .
धन्यवाद, भाई साहब ! मंडी और सुंदर नगर दोनों कुल्लू के रास्ते में पड़ते हैं। सुरंग उसी रास्ते में है।
सुंदर नगर वास्तव में सुंदर है। वह पहाड़ों से घिरा बहुत बड़ा सपाट मैदान सा है। ज़मीन उपजाऊ है ओर हरियाली बहुत है। वहाँ का मौसम बहुत सुहावना रहता है। यह कुल्लू घाटी से अलग है।
नमस्ते महोदय। पूरी किश्त पढ़ी। आपके प्रयास सफल, इसके लिए आपको बधाई। हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर !
सार्थक कार्य किये आप …… सही शादी करवाना बहुत कठिन कार्य है
धन्यवाद, बहिन जी ! सही कहा आपने।