आरक्षण और नेता…
‘आरक्षण और नेता’
बू गया था इस अराजकता का वीज, उसी दिन
जब धर्म के नाम पर, आरक्षण का जहर उगाया गया था।
और समान अधिकार वाले संविधान को, खून के आंसू रुलाया गया था॥
मानता हूं, मंशा कमजोरों के कल्याण की थी
पिछडों के उत्थान की थी,
दबे कुचलों के सम्मान की थी
भूखों को रोटी देने की थी
नंगों को लंगोंटी देने की थी
झोपडों को घर बनवाने की थी
निर्बल को न्याय दिलाने की थी
अस्पृश्यता को मिटाने की थी
सामाजिक खाई को गिराने की थी
मगर ऐ !मेरे हुक्मरानों
आप सब ने क्या कर डाला
उस खाई में जहर भर डाला।
वोट की खातिर
नफरत पिरोने लगे
भाई भाई के बीच
आरक्षण का बीज बोने लगे।
जो काम अंग्रेज
अपने पूरे शाशन में ना कर सके।
लालच की लडाई
हमारे दिलों मे ना भर सके।
औ! आस्तीन के सांपों
वोट की खातिर
तुमने वो काम
कुछ दशक में कर दिया।
भारत मां के दामन को
कराहट से भर दिया।
ये बवंडर, ये आक्रोश
सब तुम्हारी चालबाजी का नतीजा है
कुर्सी के आगे
तुम्हें कब कहां कुछ सूझा है….
कुर्सी के आगे
तुम्हें कब कहां कुछ सूझा है….
सत्ता के आगे
तुम्हे हर चीज बेमानी लगती हैं।
खून की बहती धार तुम्हे
नाली का पानी लगती है।
राजनीति तू अब मुझको
डायन की नानी लगती है।
खुद ही जने को जो खा जाये
वो शैतानी लगती है।।
सतीश बंसल