कविता

शादीशुदा पुरुष

जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा कुचला
शादीशुदा पुरुष हूं मैं
घर के झगड़े और आॅफिस की फाइलें
खून चूस लेती हैं मेरा
मेरी कमर सिजदों में नहीं झुकी
कर्जे के बोझ तले दबा हूं मैं
घर समाज से उपेक्षित
गैर जिम्मेदार क्रोधित पिता के ताने झेलता हूं मैं
अपने अक्स को अक्सर आईने में तलाशता
बुढ़ापे में घर से निकाला जाता हूं मैं
सदियों से कामों की पीड़ा सहता
शादीशुदा पुरुष हूं मैं !

गीता यादव

गीता यादव

, निवासी दिल्ली