आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 49)
बाल निकेतन का हाल
महामना मालवीय मिशन द्वारा संचालित किये जाने वाले महामना बाल निकेतन में उस समय 16 विद्यार्थी रह रहे थे। मैंने उनकी शिक्षा की जानकारी ली, तो पता चला कि कई बच्चे मासिक और अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं में या तो फेल हो गये हैं या बहुत कम अंक आये हैं। विशेष रूप से गणित और विज्ञान में कई बच्चे बहुत कमजोर थे। वास्तव में मिशन द्वारा संचालित मालवीय शिशु मंदिर और मालवीय विद्या मंदिर, जो बाल निकेतन के परिसर में ही हैं, में इन दोनों विषयों को पढ़ाने वाले शिक्षक श्री कौशल किशोर शुक्ला बहुत ही बेकार अध्यापक हैं। वे पढ़ाना तो जानते नहीं, लेकिन बच्चों को मारते बहुत हैं। इस कारण सब बच्चे उनसे डरते हैं और कोई कुछ नहीं समझ पाता।
एक बार मैंने बाल निकेतन के तत्कालीन छात्रावास प्रमुख (वार्डन) श्री दीवान सिंह के माध्यम से अध्यापकों तक यह बात पहुँचायी कि उनसे ये विषय न पढ़वाये जायें, लेकिन प्रधानाचार्य जी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। वहाँ से निराश होकर इन दोनों विषयों में बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी मैंने स्वयं सँभाल ली। मैं जियामऊ में रहने के कारण रोज तो आ नहीं सकता था, परन्तु प्रत्येक रविवार को पूरी दोपहर मैं उनके साथ ही रहता था और दो-तीन घंटे गणित तथा विज्ञान पढ़ाता था। इससे बच्चों को काफी फायदा होता था।
लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। इसलिए बाद में मैं कार्यालय से रोज शाम को सीधे बाल निकेतन आ जाता था और 2-3 घंटे बच्चों को पढ़ाकर वहीं सो जाता था। रात्रि का भोजन भी मैं बच्चों के साथ ही कर लेता था। प्रातः साढ़े 5 बजे ही मैं वहाँ से निकल जाता था और 6 बजे विश्व संवाद केन्द्र में शाखा में उपस्थित हो जाता था। फिर वहीं से तैयार होकर अपने कार्यालय चला जाता था। यह कार्यक्रम वार्षिक परीक्षाओं से पहले लगभग 2 माह तक चलता रहा। इससे बच्चों को बहुत फायदा हुआ और वार्षिक परीक्षा में वे काफी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गये।
मैं बच्चों को निरन्तर मेहनत करने की प्रेरणा दिया करता था। मैं उनको अपना उदाहरण देकर कहता था कि मैंने केवल अपनी मेहनत और बड़ों के आशीर्वाद के बल पर सब कुछ प्राप्त किया है। इसी तरह आप भी मेहनत से सब कुछ प्राप्त कर सकते हो। इस तरह समझाने का बच्चों पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा और वे पढ़ाई में अधिक मेहनत करने लगे। इससे बाल निकेतन का वातावरण भी काफी अच्छा हो गया था। बाल निकेतन समिति की बैठकें प्रति माह पहले सप्ताह में हुआ करती हैं। मैं इन बैठकों में नियमित उपस्थित रहता था और बच्चों की प्रगति की जानकारी लिया और दिया करता था।
पंचकूला के चक्कर
मैं लखनऊ में रहते हुए लगातार पंचकूला के सम्पर्क में रहता था। लगभग हर माह एक बार मैं पंचकूला अवश्य जाता था, ताकि बच्चे परेशान न हों और श्रीमती वीनू जी का भी मन लगा रहे। केवल एक साल की बात थी, इसलिए बच्चे अधिक चिन्ता नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि एक साल बाद तो सब साथ आ ही जायेंगे।
जितनी बार मैं लखनऊ से पंचकूला जाता था, लगभग उतनी ही बार मैं अपने संस्थान में भी एक दिन अवश्य जाता था। इससे मुझे वहाँ के समाचार मिलते रहते थे। बीच-बीच में मैं आवश्यकता के अनुसार आगरा भी जाता था।
मेरे इधर-उधर जाने से विश्व संवाद केन्द्र के बुलेटिन और बाल निकेतन के बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान आ जाता था, लेकिन मैं किसी तरह इसकी पूर्ति कर लेता था।
दीपांक की नौकरी लगी
सातवें सेमेस्टर का समय समाप्त होने तक दीपांक की प्रोजैक्ट भी संस्थान में पूरी हो गयी और वह आठवें सेमेस्टर की पढ़ाई करने लगा। इसी बीच उसके काॅलेज में कई कम्पनियाँ इंजीनियरों की तलाश में आयीं। उनमें से पहली कम्पनी थी इन्फोसिस। उसने सभी इच्छुक छात्रों की लिखित परीक्षा ली। जो इसमें आगे रहे, उनका इंटरव्यू भी हुआ और उसमें भी आगे रहने वालों को उन्होंने तत्काल चुन लिया। दीपांक भी इनमें से एक था। हमारी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। इन्फोसिस एक अत्यन्त प्रतिष्ठित कम्पनी है और उसके द्वारा पढ़ाई पूरी होने से पहले ही किसी का चयन कर लिया जाना बहुत ही अच्छी बात होती है। प्रत्येक पिता की यह इच्छा होती है कि उसका सुपुत्र जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ा हो जाये। मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि मेरी तरह दीपांक को भी अपना मनपसन्द काम पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। सब कुछ जैसे परमपिता ने पहले ही तय कर रखा हो।
अब दीपांक को फरवरी से मई, 2011 इन चार महीनों में प्रशिक्षण के लिए मैसूर में रहना था, जहाँ इन्फोसिस का अच्छा परिसर है। 27 जनवरी को हमने उसके लिए दिल्ली से बैंगलौर की उड़ान में टिकट बुक करा दी। जब उसे मैसूर जाना था, उसके कुछ दिन पहले मैं भी पंचकूला पहुँच गया। दिल्ली तक वह ट्रेन से गया था। उसके साथ उसके कालेज के और भी कई लड़के थे, इसलिए हमें चिन्ता नहीं थी। मैसूर के प्रशिक्षण संस्थान में उसे पंचतारा होटलों जैसी सुविधायें दी गयी थीं, हालांकि खाने के लिए उसे जो राशि दी जाती थी, वह पर्याप्त नहीं थी। इसलिए मैं भी उसे आवश्यकता के अनुसार धन भेज देता था। वह प्रशिक्षण के प्रत्येक चरण में सफलतापूर्वक अच्छे अंकों से पास होता गया। अन्त में उसके अंक 5 में से लगभग 5 ही रहे। इससे उसे सबसे अधिक वेतनमान पर नियुक्ति होने का संदेश मिल गया। उसे जुलाई-अगस्त 2011 में अपनी नौकरी पर जाना था।
विजय भाई, आज की किश्त भी अछिलागी ख़ास कर बाल निकेतन की जिस में आप ने बहुत योगदान दिया और हैरानी इस बात से भी हुई कि अभी तक बच्चों को अधिआप्कों दुआर पीटा जाता है . दीपांक की इनफ़ोसिस में पोस्टिंग तो बहुत अच्छी बात है .
आभार, भाईसाहब !
अब मैं नवी मुंबई में हूँ। बाल निकेतन के बच्चों से दूर रहने पर मुझे बहुत खेद है।
अब दीपांक चेन्नई में कॉग्नीजेंट कंपनी में है और एक बार ऑस्ट्रेलिया भी रह चुका है लगभग ६ महीने।
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। आज की पूरी क़िस्त रोचक लगी। बाल निकेतन का हाल पढ़कर आपके व्यक्तित्व के सामाजिक व शैक्षिक उन्नति के लिए प्रयासों का ज्ञान होने से प्रसन्नता हुई। आपका यह कार्य श्रेष्ठ यज्ञ के समान है। यज्ञ की परिभाषा ही यह है कि यज्ञ श्रेष्ठ कर्म को कहते हैं। श्री दीपांक जी की सफलताओं को पढ़कर प्रसन्नता हो रही है। उनके लिए हार्दिक शुभकामनायें हैं।
प्रणाम मान्यवर! आभार !!
इस शरीर से दूसरों की जितनी सेवा हो जाये उतना ही हमारा सौभाग्य है।
दीपांक को आपका आशीर्वाद उसका परम सौभाग्य है।
आपके विचार एवं जीवन प्रेरणादायक हैं। धन्यवाद।
मेरा बेटा (महबूब श्रीवास्तव) भी अपनी नौकरी की शुरुआत मैसूर इंफोसिस से ही शुरू किया … 2 साल वहीं ट्रेनर भी रहा
आपका लेखन रोचक है
धन्यवाद, बहिन जी। वैसे दीपांक ने २-३ साल बाद इन्फ़ोसिस छोड दी थी और अब कॉग्नीजेंट में है चेन्नई में।