संस्मरण

मेरी कहानी 58

मेरा दोस्त जीत एक दिन मेरे घर आया और बोला ,”गुरमेल , मैंने कॉलेज छोड़ देना है क्योंकि मैं बापू जी की मदद करना चाहता हूँ “. जीत ने और भी बहुत सी बातें बताईं। जीत के बड़े भाई की शादी हो गई थी और भाभी के आने से घर का माहौल कुछ बदल गया था। आगे उस की दो छोटी बहनें भी बड़ी हो रही थीं जिन की शादी की ज़िम्मेदारी भी जीत के बापू जी के सर पर थी। जीत के बापू जी और उस के चाचा जी जालंधर को रोज़ाना काम करने जाया  करते थे और वहां एक फर्नीचर की वर्कशॉप  में कारपेंटर लगे हुए थे।  जीत की बातें सुन कर मुझे झटका सा लगा। बचपन से चला आया साथ अब खत्म होने चला था। फिर जीत ने बताया कि उसे फगवारे एक स्कृू और नेल बनाने वाली फैक्ट्री में काम मिल गिया था। रोटी का वक्त हो गिया था और माँ ने हम दोनों के आगे रोटी की थालिआं रख दीं। जीत माँ को बोला , ” चाची जी ! दो बड़ी बड़ी लाल अचारी मिर्चें मुझे ला दें “. माँ ने हमें अचारी मिर्चें ला दीं। उस दिन हम ने बहुत बातें कीं , पुरानी बातों को याद करके बहुत हँसे। जीत उस दिन ऐसे बातें कर  रहा था जैसे टेप रिकार्डर लगी हो।
वोह पुरानी बातें करने लगा , जब हम शायद आठवीं कक्षा में  पड़ते थे। एक दिन हम दोनों ने फगवारे फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया था ,वोह भी पैदल चल कर फ़गवॉड़॓ जाना था। हम ने फिल्म देखी  पैराडाइज़ में और सिनीमे से बाहर निकल कर एक ढाबे पे रोटी खाई। उस के बाद सारी रात हम ने रेलवे स्टेशन  के वेटिंग  रूम में गुज़ारनी थी। जब हम रेलवे स्टेशन पर पुहंचे तो वेटिंग हाल के सभी बैंचों पर लोग अपना अपना सामान रख कर बैठे हुए थे। जीत मुझे बोला कि उसे जंगल पानी जाने को कुछ महसूस हो रहा था। रेलवे स्टेशन की लाइन के कुछ दूर  खेत ही खेत थे।  एक कपास का खेत था जिस में कपास के ऊंचे ऊंचे बूटे हो गए थे और इस में बैठ जाने की प्राइवेसी की सहूलत थी। कपास के इन बूटों को पंजाब में नरमा भी कहते हैं। जब हम दोनों बैठ गए तो हमें यह मालूम नहीं था कि वहां कुछ लड़किआं भी बैठी हुई थीं क्योंकि कपास इतनी ऊंची थी कि हमें दिखाई ही नहीं दिया। वोह लड़कियाँ हमें गालियाँ देने लगीं। हम मुसीबत में थे क्योंकि हमारा काम शुरू हुआ ही था और उठ जाने की स्थिति में नहीं थे। जीत ने उन को कुछ बोल दिया। वोह लड़किआं ऊंची ऊंची बोल उठीं ,” ए बापू ! यह नरमा  खाणे यहां आ बैठे हैं और उठते नहीं !” हम उसी तरह पजामे के नाले पकड़े भाग खड़े हुए कि कहीं छितर परेड ना हो जाए। कुछ दूर ही गए होंगे कि वोह लड़किआं  खिल खिला कर हंसने लगीं। दूर जा कर हम ने कुएं पर अपने आप को धोया और रेलवे स्टेशन के मुसाफर खाने में आ गए।
वहां अभी भी बहुत लोग थे। हम रेलवे रोड पर घूमने लगे लेकिन वक्त काटना मुश्किल हो रहा था। हम वापस आ गए। जब तक कुछ बैंच खाली हो गए थे। हम दीवार के साथ वाले बैंचों पर लेट गए। ऊपर छत थी और यह लोहे के टीन की थी ,जिस की सपोर्ट की लोहे की पत्तीओं पर बहुत से कबूतर बैठे थे और गुटकूँ गुटकूँ कर रहे थे। हमें नींद आ गई लेकिन सोये सोये कभी कभी हम को महसूस होता जैसे हम पर कोई चीज़ गिर रही हो। रात को कोई बारह बजे मुझे जाग आ गई और अचानक मेरा हाथ अपनी कमीज़ पर गिया और कुछ अजीब सा महसूस हुआ। मैं बैंच पर से उठा। यूं ही मैंने अपनी कमीज़ की ओर देखा ,यह सारी की सारी कबूतर की बीठों से भरी हुई थी। मैंने जीत को भी उठाया और उस का भी यही हाल था। घबराये और शर्माते हुए हम मुसाफरखाने से बाहर आ गए। एक दरख्त से हम ने टैहणिआं तोड़ीं और कमीज़ पर से बीठों को साफ़ करने लगे। हमारी हालत बहुत बुरी थी। कुछ दूर जा कर रेलवे का एक बड़ा सा नल था। हम ने अपनी कमीज़ें उतारीं और पानी से साफ़ करने लगे। किस्मत अच्छी थी क्योंकि गर्मिओं के दिन थे। लौ होने से पहले पहले हम गाँव को वापस चल पड़े। कमीजें हम ने सरों पर रख ली थीं , प्लाही आ कर दिन चढ़ आया था ,कमीजें भी सूख गई थीं। कुछ देर बाद हम गाँव वापस आ गए थे।
कुछ देर बाद जीत ने एक और बात दुहराई जो पहले भी बता चुका था। जीत के पिता जी गाँव के गुरदुआरे में हर संक्रात को कीर्तन किया करते थे और जीत साथ में ढोलक वजाया  करता था। एक दिन जीत जब स्कूल आया तो मुझे बताने लगा ,” यार गुरमेल कल तो बहुत बुरा हुआ ” जब मैंने पुछा कि किया हुआ था तो बताने लगा ,” कई दिनों से मुझे बहुत कबज  थी और मेरे नीचे  से बदबूदार गैस निकल रही थी और पाद भी आ जाता जिस की आवाज़ ऊंची होती , कल जब मैं बापू जी के साथ गुरदुआरे में ढोलक वजा रहा था तो जब भी मेरे  नीचे से गैस निकलती मेरी  ढोलक की ताल बिगड़ जाती और बापू जी टेढ़ी नज़र से मेरी ओर देखते और ताल ठीक करने का इशारा करते। एक दफा तो ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि इस दफा बहुत ऊंची आवाज़ से पाद की आवाज़ आएगी ,इस लिए मैंने पाद निकलते वक्त जोर जोर से दो दफा ढोलक पे डाओ डाऊ वजा दिया , बापू जी लाल लाल आँखों से मेरी तरफ देखने लगे ,जब घर आये तो बापू जी ने मुझे बहुत डांटा कि आज तुम्हें किया हो गिया था जो हर दम गलत ताल दे रहा था। अब मैं किया बताता कि मुझे किया हुआ था।” जीत की ईस बात से हम बहुत हँसे थे और आज जीत फिर वोह ही बात दुहरा रहा था।
आज जीत ने बातें बहुत की ,पता नहीं उस का मन अंदर से उदास होगा और खुश होने का नाटक कर रहा था। फिर एक दिन जीत ने मुझे उस की फैक्ट्री देखने को कहा और मैं भी उस के साथ फैक्ट्री देखने चला गिया। फैक्ट्री तो बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन मैंने भी मछीनें पहली दफा देखीं। यह फैक्ट्री हमारे एक दोस्त के भैया की थी , और यह दोस्त भी उस वक्त वहीँ था। जीत ने एक तार को मछींन में डाला ,मछींन को ऑन किया और सक्रीऊ बन कर निकलने लगे। देख कर मैं बहुत हैरान हुआ था। यह जीत की शुरुआत थी। जब मैं आज से पंद्रा साल पहले जीत को मिलने मुम्बई गिया  था तो उस वक्त जीत एक कामयाब बिज़नेस मैन बन गिया था। उस का घर काफी बड़ा था और उस के बापू जी भी वहीँ थे जो अब बहुत बूढ़े हो गए थे। हम ने बहुत हंस हंस बातें की थीं और जीत की विडिओ ली थी। हमारी बातें अब भी वोही थीं जो कालज के ज़माने में होती थी लेकिन अब जीत का बेटा भी काम में उस का हाथ  बंटा रहा था और जीत की पांच साल की पोती मुझे अपना छोटा सा कीबोर्ड बजा कर दिखाने लगी थी। इस के कुछ साल बाद जीत फिर मुझे गाँव में ही मिला था ,तब मैं भी उस को मिलने जालंधर उस की कोठी में  गिया था जो उस ने नई नई बनाई थी। बस इस के बाद हमारा कॉन्टैक्ट खत्म हो गिया। न तो मुझे उस का टेलीफून पता है और ना ही उस का एड्रेस लेकिन जीत की वोह यादें दिल में हमेशा रहेंगी। जीत के कालज छोड़ने की बातों से यह यादें ताज़ा हो आईं.
जीत का साथ छूट चुका था। एक दिन प्रोफेसर टंडन जब क्लास में आये तो हम को बोले कि कॉलेज की तरफ से एक टूर का प्रोग्राम बन रहा है ,इस लिए अगर किसी ने जाना हो तो उन्हें अपने नाम लिखवा दें। फिर उन्होंने प्रोग्राम  बताया कि यह प्रोग्राम एक ऐतिहासिक टूर होगा जिस में ऐतिहासिक जगहें  दिखाई जाएंगी ,यह बीस दिन का टूर होगा ,इस के १५० रुपय चार्ज किये जाएंगे। कुछ ग्रांट कालज की ओर से मिलने वाली थी। तीन प्रोफेसर साथ जाएंगे। बहुत दिन हो गए थे लेकिन टूर पर जाने के लिए लड़के आगे आ नहीं रहे थे। उस समय १५० रुपय खर्च करना सब के बस  की बात नहीं थी। प्रोफेसर धीर भी साथ जा रहे थे और एक और संस्कृत के प्रोफेसर थे जिन का नाम मुझे याद नहीं है। मैंने तो अपना नाम पहले ही दे दिया था।  बहादर भी जा नहीं रहा था । जीत तो कालज ही छोड़ गिया था और बड़ी मुश्किल से २१ लड़के तैयार हुए। जिस दिन जाना था ,उस शाम को फगवारे रेलवे स्टेशन से दिली के लिए जनता मेल में सवार होना था। नियत रात को हम अपने कपड़ों के सूटकेस और एक छोटा सा बिस्तर ले कर फगवारे रेलवे स्टेशन पर इकठे हो गए। प्रिंसीपल अमर सिंह और कुछ अन्य प्रोफेसर हमें विदा करने के लिए आये हुए थे और एक फोटोग्राफर भी आया हुआ था ,जिस ने हमारी ग्रुप फोटो खींची जो एक साल बाद हमारे कॉलेज के मैगज़ीन में छाया की गई थी ।
रात के आठ वजे जनता मेल चल पडी जो हर छोटे बड़े स्टेशन पर खड़ी  होती थी, इसी लिए ही  यह ट्रेन सुबह को आठ वजे दिल्ली पहूँचती थी। एक ही डिब्बे में हम सब को जगह मिल गई और हम शोर मचाने लगे  और गाने लगे। प्रोफेसर टंडन और प्रोफेसर ओम प्रकाश धीर भी मस्ती करने लगे लेकिन संस्कृत के प्रोफेसर ज़्यादा नहीं बोलते थे। एक स्टेशन से बहुत से लोग टोकरे ले कर चढ़ गए और कुछ के हाथों  में दूध के बड़े बड़े ड्रम थे। जब इन से पुछा कि टोकरों में किया था तो उन्होंने बताया कि टोकरों में दूध से बना मावा था जो वोह अम्बाले ले जा रहे थे जो उन्होंने हलवाइओं की दुकानों को सप्लाई करना था और यह रोज़ इसी तरह दूध और मावा सप्लाई करते थे। पहली दफा हम ने दूध से बना इतना मावा देखा। यह लोग भी गाने लगे। इन लोगों के साथ हम ने बहुत शुगल किया। अम्बाले जा कर यह लोग उत्तर गए। यों यों रात बीत रही थी कुछ लड़कों को नींद के झोंकें आ रहे थे। प्रोफेसर टंडन ने हमें पहले ही बताया हुआ था कि जब भी नींद आये कमज़क्म दो लड़के जागते रहे ताकि सामान चोरी ना हो जाए। बहुत लड़के खर्राटे मारने लगे लेकिन इस तरह ट्रेन में मैं कभी भी सो नहीं सकता था और जागता रहा।
इस  जनता मेल  में मैंने बहुत दफा सफर किया था लेकिन कभी भी सो नहीं सका था। यों तो मेरी नींद आठ नौ घंटे की होती थी लेकिन ट्रेन या एरोप्लेन में मैं कभी भी सो नहीं पाया था। कुछ और भी मेरे जैसे लड़के थे जो सुस्त तो बैठे थे लेकिन जाग रहे थे। प्रभात की लौ शुरू होने लगी और रेल गाड़ी सुस्त रफ़्तार से चलने लगी ,गाड़ी में भी हिलजुल होने लगी  और बोलने लगे कि दिल्ली आ गई थी। गाड़ी बहुत ही स्लो हो गई और हमारे लिए एक अजीब बात देखने को मिली जो बहुत घिरनत लगी। रेलवे लाइन के दोनों तरफ बहुत लोग डिब्बे ले कर हाजत के लिए बैठे हुए थे। आज तो घर घर शौचालय है और गाँवों में भी बहुत लोगों के घर में शौचालय बने हुए हैं लेकिन उस समय जो देखा था शायद बहुत कम दिली वालों को पता होगा। हमारे सभी लड़के जाग रहे थे और बहुत लड़कों ने अपने मुंह पर रुमाल रखे हुए थे। इस को बस यह ही लिखूंगा कि जितना गंद इस रेलवे लाइन के दोनों तरफ देखा था इतना गाँवों में बिलकुल नहीं था क्योंकि गाँव में लोग खेतों में दूर दूर चले जाते थे ,इस लिए इतना गंद नहीं था।
रेलवे स्टेशन आ गया और हम ने अपना अपना सामान उठाया और प्रोफेसरों के पीछे पीछे चल पड़े। रेलवे स्टेशन से बाहर आ गए। टंडन साहब ने एक होटल  में कमरों का इंतज़ाम पहले ही किया हुआ था। टैक्सीओं का इंतज़ाम किया गिया और हम होटल की ओर चल पड़े। होटल में आ कर अपना सामान कमरों में रखा और हमारे खाने का इंतज़ाम किया गिया। जब  खाना खा चुके तो टंडन साहब बोले कि कुछ घंटे सभी आराम कर लें और दुपहर को लाल किला देखने जाएंगे। सभी लड़कों ने जी भर कर सोया। शायद दो बजे बस आई होगी जिसका इंतज़ाम टंडन साहब ने किया हुआ था। सभी लड़के कोच में सवार हो कर लाल किले जा पुहंचे। टंडन साहब ने ग्रुप टिकट लिया। हम लाल किले की दीवार को देख देख कर हैरान हो रहे थे। अब तक तो इतहास में ही पड़ा था कि लाल किला शाहजहाँ ने बनाया था और अब हम इस के सामने खड़े थे। जब लाल किले  पर आये तो गेट देख कर ही हैरान हो गए। टंडन साहब किले की दीवार के ऊपर छोटे छोटे झरोखों को दिखा कर हमें बोले कि जब दुश्मन किले पर हमला करता था तो इन झरोखों में से किले के सिपाही दुश्मन पर बंदूकों से गोलिओं की बुछार करते थे और जलता जलता तेल भी डाला करते थे। दुश्मन लकड़ी की सीडीआं लगा कर ऊपर चढ़ने की कोशिश करता था लेकिन किले के सिपाही इन झरोखों में से दुश्मन को पछाड़ते थे।
फिर टंडन ने हमें किले के इर्द गिर्द की खाई दिखाई जो पहली डिफेंस लाइन होती थी।  यह पानी से भरी रहती थी। फिर एक जगह दिखाई जिस पर अमर सिंह राठौर ने किले से अपने घोड़े के साथ छलांग लगाईं थी। किले के दरवाज़े से हम अंदर दाखल हुए और इर्द गिर्द बहुत सी दुकाने थीं जिस में इतिहास से संबन्धित किताबे और सामान था। जैसे जैसे हम चलते गए हमारी हैरानी बढ़ती जा रही थी क्योंकि यह सब अभी तक किताबों में  ही पड़ा था। दीवाने आम और दीवाने ख़ास की शान देख कर भी हैरान हुए। वोह तखत जिस पर शाहजहाँ बैठा करता था ,देखा। अभी तक तो यह फिल्मों में ही देखा था। म्यूज़ियम भी देखा जिस में बहादर शाह के कपडे थे और कुछ अंग्रेज़ों के ज़माने का लड़ाई का सामान रखा हुआ था। अंग्रेज़ों की फ़ौज के सिपाईओं के कपडे और सिख फौजिओं की पगड़ीआं रखी हुई थीं।
फिर वोह कमरा भी दिखाया जिस में १८५७ की लड़ाई के बाद बहादर शाह को रखा गिया था। गरम हमाम दिखाया जिस में बादशाह रानिओं के साथ स्नान  किया करता था जो बादशाहो की ऐयाशी को जाहर करता था , इस पर सभी लड़के और प्रोफेसर बातें करके हँसते थे। मैंने अपने कैमरे से कुछ फोटो लीं जो अभी भी मेरी एल्बम में हैं ,जब कभी उन को देखता हूँ तो टूर की याद आ जाती है। और भी बहुत कुछ देखा जैसे किले की दीवारें जो इतनी चौड़ी थीं की उन पर घोड़े दौड़ सकते थे। कुछ घंटे बाद हम बाहर आ गए और अपनी कोच में बैठ कर शीश गंज गुरदुआरे में आ गए और सारा गुरदुआरा धियान से देखा ख़ास कर वोह खूही जिसमें गुरु तेग बहादर जी ने शहीदी से पहले स्नान किया था। गुरदुआरे में ही हमने लंगर का मज़ा लिया और होटल में आ गए। होटल में स्नान किया और गप्पें हांकने लगे, कुछ ताश खेलने लगे। टंडन साहब ने सुबह का प्रोग्राम बना लिया था और सब से पहले जवाहर लाल नेहरू जी से मिलने की अपॉइंटमेंट ले ली गई थी, उस के बाद ही हम ने दिल्ली की सैर करनी थी।
चलता…

6 thoughts on “मेरी कहानी 58

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक संस्मरण, भाई साहब !

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद विजय भाई .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके मित्र श्री जीत की बाते एवं दिल्ली की यात्रा के संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा। लाल किला मैंने भी कई बार देखा परन्तु इतने ध्यान से नहीं देखा था। धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई ,बहुत बहुत धन्यवाद ,यह मीठी यादें ही हैं .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक लेखन भाई जी

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद बहना .

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