गज़ल (ख्बाब)
ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं
कामचोरी, धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं
दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं
अब करा करता है शोषण ,आजकल वीरों का पौरुष
मानकर विधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं
नाज हमको था कभी पर, आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सारे ढह गए हैं
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना
रचना में कुछ स्खलन के बाद भी गजल अच्छी है।