कविता

अबकी बजने दे रणभेरी (आल्हा छंद)

धूल उड़ी फिर समरांगन की, भारतमाता रही पुकार।
भगवाबाना धारो वीरों, चलों चलें हम शस्त्रागार॥
गुंजित हो जिनके आँगन में, हर-हर महादेव जयकार।
असहनीय हैं उन शेरों को, कायर गीदड़ के उदगार॥

शठ, कायर, कुंठित नापाकी, भूल नहीं जाना औकात।
तुझे मसलने को काफी है, हिन्दू वीरों की इक लात॥
विश्वपटल से मिट ही जाती, अबतक तुम दनुजों की जात।
विवश मगर कर देती हमको, राजनीति की बिछी बिसात॥

चार बार आया लड़ने तू, थूक-थूक चाटा हरबार।
इकहत्तर में अंग गँवाया, तो करगिल में मान अपार॥
भूख नाचती घर में फिर भी, जुटा रहा घातक हथियार।
अरे रक्त ही गंदा तेरा, औ’ बर्बर, वहशी संस्कार॥

छुरा पीठ में घोंप रहा है, फेंक-फेंक अनगिन छलजाल।
चिनगारी देखी है तूने, देखा नहीं अभीतक ज्वाल॥
अबकी बजने दे रणभेरी, लाएंगे ऐसा भूचाल।
घर में घुस-घुसके मारेंगे, खींच-खींचके तेरी खाल॥

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन

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