ग़ज़ल
उम्र के दायरे से अब मुहब्बत का नहीं नाता।
जहाँ जेबों में गर्मी हो इश्क बिकने वहीँ जाता ।।
जमाने का यहाँ बिगड़ा हुआ दस्तूर है या रब ।
सेठ बाजार की कीमत बढ़ाने है वहीँ आता।।
कब्र में पाँव हैं जिनके वो दौलत के फरिस्ते हैं ।
मिजाजे आशिकी के फख्र का मंजर नहीं जाता ।।
सियासत दां कोई तालीम अब मत दे ज़माने को ।
जिन्हें अपने मुकद्दर में शरम लिखना नहीं आता ।।
तेरी बिकने की फितरत थी बिकी है हसरते तेरी।
मुहब्बत नाम से जारी तेरा फतबा नहीं भाता।।
यहां कानून के रंग में हूर की कीमते खासी ।
इश्क का दर्ज क्या खर्चा जरा देखो बही खाता ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
सुंदर लेखन
उम्दा गज़ल