मेरी कहानी 59
सुबह उठ कर होटल में नहा धो कर नाश्ता किया। हमारी कोच आ गई थी। एक सरदार जी ड्राइवर थे जो काफी हंसमुख थे। सभी कोच में बैठ गए और हम नेहरू जी को मिलने चल पड़े। जब हम नेहरू जी के निवास अस्थान पर पुहंचे तो दस वजे का वक्त था। एक आदमी हमें मिलने के लिए आया। टंडन साहब ने उस से बातें कीं और हम को अंदर आने की इजाजत मिल गई। हम एक गार्डन में गए जिसमें फूलों की किआरीआं थीं और तरह तरह के फूल थे। मुझे लिखना पड़ेगा कि यह कौन सी जगह थी मुझे याद नहीं लेकिन बहुत सुन्दर जगह थी और लान में कुछ गोरे और अन्य बिदेशी घूम रहे थे। हम सभी एक जगह खड़े हो गए थे। ज़्यादा से ज़्यादा हमें पंद्रा मिनट इंतज़ार करना पड़ा और नेहरू जी बाहर आ गए, वोह तंग पजामे और शेरवानी जैसी ड्रैस में थे और जेब के ऊपर ताज़ा लाल गुलाब का फूल उन की शोभा बड़ा रहा था। नेहरू जी बिलकुल गोरे सलिम और अंग्रेज़ों जैसे लग रहे थे।
जब हमारी तरफ आये तो एक आदमी जो नेहरू जी के साथ था बोला ,” यह लड़के पंजाब से आये हैं ” नेहरू जी ने हाथ जोड़कर हम को नमस्ते बोला और ऐसा ही हम सबने बोला। प्रोफेसर टंडन बोला ,” पंडित जी, यह लड़के पंजाब के रामगढ़िया कालज से आये हैं “. नेहरू जी ने हम को पुछा कि कालज में हम किया पड़ रहे थे। हम ने अपने अपने ढंग़ से जवाब दिए। फिर नेहरू जी बोलने लगे कि हमें साइंस पड़नी चाहिए ,देश को टैक्नॉलोजी की बहुत जरुरत थी। उन्होंने कम समय में बहुत बातें बोलीं जो सारी तो मुझे याद नहीं लेकिन कुछ ही मिनटों में हमें ऐसे मेहसूस होने लगा था जैसे हम नेहरू जी को बहुत देर से जानते थे क्योंकि बातें करने में वोह बहुत साधारण से लग रहे थे। फिर कैमरा मैंन हमारी ग्रुप फोटो लेने लगा। नेहरू जी हमारे बीच खड़े हो गए और हमें बोले ,” जरा नज़दीक हो जाइए ,फोटो अच्छी आएगी “.
फोटो के बाद वोह और मेहमानों से बातें करने के लिए दूसरी तरफ चल दिए और हमें नमस्कार कर दिया। हम भी वापस आ कर अपनी कोच में बैठ गए। यह फोटो मेरी एल्बम में है और जब कभी देखता हूँ तो पुराने ज़माने की याद ताज़ा हो जाती है। जब १९६२ की चीन की लड़ाई हुई थी मैं यहां इंग्लैण्ड में ही था और जब नेहरू जी इस दुनिआ को अचानक छोड़ गए तो मुझे उन के चले जाने का दुःख तो बहुत हुआ ही लेकिन वोह सीन आँखों के सामने आ रहा था जब हम नेहरू जी के साथ ग्रुप फोटो खिचवा रहे थे। महान होते हुए भी वोह कितने साधहरण थे।
कोच में हम बैठ गए थे और उस दिन सारा दिन हमने दिली ही देखनी थी। यह हमारा पहला तज़ुर्बा था। किताबों में पड़ा इतहास आँखों से देखने चले थे। सबसे पहले हम जंतर मंतर पे आ गए। ट्राइऐंगल और ज़मीं पर गोल चक्क्र देख कर पहले तो हमें कुछ समझ नहीं आया। टूर गाइड हमारे साथ ले लिया गिया था जिस ने सारा दिन हमारे साथ ही रहना था। उस ने हमें बहुत कुछ बताया जो पूरा तो याद नहीं लेकिन जो उसने टाइम कैलकुलेट किया वोह हमारे लिए हैरानी जनक था। उस गाइड ने हमें अपनी अपनी घडिओं में वक्त देखने को बोला ,फिर उस ने बड़ी ट्राइऐंगल की परशाई देख कर टाइम कैलकुलेट किया। हम हैरान हो गए कि सिर्फ दो मिनट का ही फरक था। उन दिनों ही एक फिल्म आई थी “परदेसी ” जिस में एक रशियन हीरो था और नर्गिस हीरोइन थी। इस फिल्म में रशियन हीरो यह जंतर मंतर देख कर हैरान हुआ था। काफी देर हम यहां घुमते रहे और हमें बताया था कि जय वपर में जो जंतर मंत्र था ,इस से भी बढ़िया था , इस बात की हमें उत्सुकता थी क्योंकि हम ने जय पर भी जाना था।
जंतर मंत्र से सीधे हम बिरला मंदिर देखने गए, कोई ख़ास बात तो इस मंदिर की याद नहीं लेकिन बाहर एक बड़ी सी गुफा बनी हुई थी जिस की बाहर से शकल शेर जैसे थी और शेर का मुंह बहुत बड़ा बना हुआ था। अब इस जगह पर कोई नई तब्दीली की होगी तो मुझे पता नहीं। बिरला मंदिर में हम सिर्फ तकरीबन आधा घंटा ही रहे होंगे। फिर हम एक आर्ट गैलरी देखने गए ,यह भी मुझे याद नहीं कि कहाँ थी लेकिन यह मुझे बहुत अच्छी लगी। इस में पेन्टिंग्ज़ बढ़िया से बड़ीआ थीं। इस से पहले हम किसी ने भी कोई पेंटिंग नहीं देखि थी। एक बहुत बड़ा कमरा था जो बहुत ही ठंढा था जिस में कुछ पेन्टिंग्ज़ तो देख कर ही मज़ा आ गिया। एक पेंटिंग तो ऐसी थी जो नज़दीक से ऐसे थी जैसे ब्रश से बहुत से रंगों के छींटे पड़े हुए हों और इस में कुछ दिखाई नहीं देता था लेकिन जरा दूर दस बाराह फ़ीट पर एक जंगल का सीन दिखता था जिस में बड़े ऊंचे ऊंचे बृक्षों के बीच में एक रास्ता बना हुआ था जिस पर एक मिआं बीवी एक कुत्ते के साथ जाती हुई दिखाई देती थी। यह तस्वीर ही मुझे इस आर्ट गैलरी की याद दिलाती है , वरना और सभ कुछ भूल गिया है।
आर्ट गैलरी से बाहर आये तो फिर कोच में बैठ गए और ड्राइवर हमें कुतब मीनार ले आया। अब तक तो कुतब मीनार की तस्वीर सिर्फ किताबों में ही देखते आये थे और आज इस के सामने खड़े थे। अब तो पता चला है कि इस के ऊपर जाने से मनाही है लेकिन उस वक्त हम सभ इस के ऊपर चढ़े थे। मीनार के इर्द गिर्द सीडीआं घूम घूम कर ऊपर की ओर चली जा रही थी ,काफी अँधेरा था ,कुछ देर बाद एक झरोखा आ जाता जिस से रौशनी हो जाती ,फिर ऊपर जाते जाते अँधेरा होने लगता और अचानक फिर झरोखे से रौशनी आने लगती। इसी तरह घूम कर चढ़ते हुए हम ऊपर आ गए और रौशनी हो गई , यहां लोहे की बड़ी जाली लगी हुई थी ताकि ऊपर से कोई छलांग न लगा सके, टंडन साहब बता रहे थे कि यहां से बहुत लोगों ने आतम हत्याएं की थी। अभी दो मंज़लेँ और ऊपर थीं लेकिन वोह बंद की हुई थीं, ऊपर जा नहीं सके , हम ने दूर दूर तक नीचे नज़र दौड़ाई ,लोग छोटे छोटे दिख रहे थे और डर सा भी लग रहा था। हम नीचे उतरने लगे और नीचे आ कर ऊपर को देखा तो लगा जैसे मीनार हमारे ऊपर झूल रही है।
फिर हम आयरन पिल्लर को देखने लगे , जिस के बारे में टंडन साहब ने विस्तार से हमें बताया जिस में उस समय की मैटलौरोजी इतनी कमाल की थी कि सोला सत्रा सौ साल से खड़े इस पिल्लर को जंग नहीं लगा था। इस के बाद हम गयासुद्दीन बलबन का मक़बरा देखने गए ,जिस में गयासुद्दीन की कबर थी और बाउली बनी हुई थी ,नीचे जाने के लिए सीडीआं थीं और इस बाउली में पानी था और कुछ लड़के इस में छलाँगें लगा रहे थे। मेहरौली में खण्डरात ही खण्डरात थे और अल्तमश का मक़बरा भी था जिस में अल्तमश की कबर भी थी . टंडन साहब बता रहे थे कि जितना भी पत्थर इस जगह इस्तेमाल हुआ वोह हिन्दू मंदिरों को तोड़ कर इस्तेमाल किया गिया था।
फिर हम राज घाट गए। महात्मा गांधी जी की समाधि देखि जो काले पत्थर से बनी हुई थी और उस पर हे राम लिखा हुआ था । बहुत से बिदेशी भी वहां घूम रहे थे और फोटो ग्राफी कर रहे थे। उस वक्त तो यह जगह बहुत छोटी और साधाहरण ही थी लेकिन बाराह तेराह साल पहले तो बहुत अच्छी बन गई थी और अब तो बताते हैं यह जगह उस से भी बहुत ही सुन्दर है।
हम सब थक्क गए थे और कोच होटल में वापस आ गई। खाना खा कर ताश खेलने लगे।
टंडन और धीर की यह सिफत थी कि उन्होंने हमें बोर नहीं होने दिया था । कुछ अँधेरा हुआ तो वोह हमें कनॉट प्लेस ले गए। बड़ी बड़ी दुकानें देखीं जो पहले कभी देखने को नहीं मिली थीं और सब से बड़ी बात एक दूकान में पहली दफा टैलीवियन देखा जिस का बॉक्स लकड़ी का बना हुआ था और स्क्रीन मुश्किल से सत्रा अठरा इंच होगी। टंडन साहब ने बताया कि टीवी सिर्फ दिली में ही देखा जा सकता था। दूकान के बाहर खड़े हम यह टैलीवियन बहुत हैरानी से देख रहे थे। स्क्रीन पर राजिंदर परसाद जी बोल रहे थे लेकिन हमें कुछ भी सुनाई नहीं देता था। बहुत रात तक हम कनॉट प्लेस की सैर करते रहे ,और फिर हम वापस होटल में आ गए।
सुबह उठ कर खाना खाया और हमारी कोच आ गई। हम चल पड़े पुराना किला देखने। पुराने किले की बहुत सी यादें तो भूल गई हैं लेकिन टंडन साहब ने जो बताया कुछ कुछ याद है कि इस किले की जगह महभारत के समय पांडवों की राजधानी इंदरप्रस्त हुआ करती थी और किले की खुदाई के समय इस के कुछ प्रमाण भी मिले थे। स्तारवीं सदी में शेर शाह सूरी ने इस इंदरप्रस्त वाली जगह पर किले को बनाया था। शेर शाह सूरी ने हमायूं को हरा कर अपना राज कायम किया था लेकिन बाद में हमायूं ने भी शेर शाह को हरा कर अपना राज वापस ले लिया था। शेर शाह की कोई बनाई बिल्डिंग थी जिस का नाम मुझे याद नहीं लेकिन हमायूं ने इस जगह में अपनी लाइब्रेरी बना ली थी और इस लाइब्रेरी की सीढ़ीओं से गिर कर हमायूं की मौत हो गई थी ,हम ने वोह सीड़ीआं खुद देखीं जो सिर्फ इतहास की किताब में पड़ा करते थे।
कुछ देर के बाद हम दिली का चिड़िआ घर देखने चल पड़े। चिड़िआ घर भी हम ने ज़िंदगी में पहली दफा देखा ,सुना तो बहुत था। जितने भी जानवर थे सब पहली दफा ही देखे ,यह भी एक नया तज़ुर्बा था। कुछ घंटे घूम कर हम हमायूं का मक़बरा देखने गए ,ज़्यादा कुछ याद नहीं लेकिन एक बात याद है जो टंडन साहब ने बताया कि १८५७ की आज़ादी की जंग के आख़री दिनों में बहादर शाह ज़फर लाल किले से भाग कर इस हमायूं के मकबरे में आ छुपा था और अँगरेज़ करनल हुडसन ने बहादर शाह को यहां से पकड़ा था।
आखर में हम जामाँ मस्जिद को देखने चल पड़े। यों तो जामाँ मस्जिद लाल किले के नज़दीक ही थी, पता नहीं टंडन साहब आज ही हमें ले गए थे। टंडन साहब ने बताया था कि लाल किले की तरह जामाँ मस्जिद भी शाहजहाँ ने ही बनाई थी और इस को बनाने में छै सात साल लगे थे और पांच हज़ार लोग इस पर काम करते थे। दिली में और किया देखा कुछ याद नहीं लेकिन वापस होटल में आ कर टंडन साहब ने दुसरी सुबह आगरे जाने का प्रोग्राम हमें बता दिया था जिस के लिए हम ने ट्रेन लेनी थी। खाना खा कर सुबह की इंतज़ार में हम सब सो गए।
चलता ……………………………
बहुत रोचक यात्रा वर्णन भाई साहब !
धन्यवाद विजय भाई .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। नेहरू जी से आपकी भेंट के बारे में पढ़ा। दिल्ली में आप जहाँ जहाँ गए वहां वहां हमने भी सैर की। अच्छा लगा। आज की आत्मकथा की कहानी रुचिकर लगे। हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी ,धन्यवाद ,यह भूली विसरी यादें ही हैं .
आपके आलेख से पूरी दिल्ली की सैर हो गई भाई जी
सुंदर विवरण
धन्यवाद बहना .