हिन्दी साहित्य के ‘सुदामा’ थे ‘श्रीश’ जी – अमन चाँदपुरी
‘हिन्दी साहित्य के ‘सुदामा’ थे ‘श्रीश’ जी
‘पूर्वाचल के शब्दर्षि’ और ‘साहित्य-सुदामा’ कहे जाने वाले छायावादोत्तर युग के अन्तिम कवि पंडित सत्यनारायण द्विवेदी ‘श्रीश’ हिन्दी साहित्य जगत में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं। इनका जन्म अम्बेडकर नगर (तत्कालीन फैजाबाद) के सेठवां गाँव में 12 अक्टूबर 1920 ई. में पंडित हरिप्रसाद द्विवेदी के प्रथम पुत्र के रूप में हुआ था, इनकी माता का नाम सोनादेवी था। सत्यनारायण व्रत कथा सुनने के बाद जन्म लेने के कारण ही इनका नाम सत्यनारायण पड़ा।
इन्होनें प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालयों से प्राप्त की एवं स्वाध्याय से हिन्दी, ब्रज, संस्कृत और फारसी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान अर्जित किया। इनका हस्तलेख मुद्रित अक्षरों को भी मात देता था, वाणी में इतनी मधुरता, सरलता एवं प्रेम घुला रहता कि हर कोई अपने-आप ही आकर्षित हो जाए।
सन 1946 में पंडित संतराम, धीरेन्द्र मजूमदार और आचार्य नरेन्द्र देव ने मिलकर गोसाईगंज में एक विद्यालय की स्थापना की, उसी में ये अध्यापन करने लगे। जब तक विद्यालय में रहे, कवि सम्मेलन करता रहे और आस-पास के इलाकों में भी पचासों कवि सम्मेलन करा डालते। जिसमें देश के बड़े-बड़े कवियों की उपस्थिति होती थी। कभी-कभी तो कविगणों की संख्या 50 को भी पार कर जाती थी। जिनमें सूंड फैजाबादी, श्याम नारायण पांडेय, रमईकाका, उमाकांत मालवीय, चंद्रशेखर मिश्र, शिशुपाल सिंह ‘शिशु’, सीताराम चतुर्वेदी, पारभ्रमर, भारत भूषण, मतवाला, मृगेश, बलवीर सिंह ‘रंग’, शारद, श्रीपाल क्षेम, सुमेर सिंह बेघल, ब्रजेंद्र अवस्थी, शैलेश आदि प्रमुख रहे। निरन्तर साहित्य-साधना के कारण अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी, आचार्य रामकृष्ण दास, शांतप्रिय द्विवेदी, भवानीभीख त्रिपाठी ‘दिव्य’, सनेही, उदयनारायण तिवारी, पंडित क्षेत्रेश चंद्र चट्टोपाध्याय, लक्ष्मीनारायण मिश्र, श्रीनारायण चतुर्वेदी, बाबा नागार्जुन और अंचल आदि से भी इनका अच्छा सम्बन्ध रहा।
छात्र जीवन में ये इतिहास, भूगोल आदि विषयों को भी छंदोबद्ध कर स्मरणीय बना लेते थे जिसका अन्य सहपाठी भी उपयोग करते थे। काव्य श्रृजन की प्रेरणा इन्हें परमपूज्य पिताश्री और भवानीभीख त्रिपाठी ‘दिव्य’ जी से मिली। इनकी पहली कविता अमेठी से निकलने वाली पत्रिका ‘मनस्वी’ में और पहली कहानी ‘नरेश’ 6 दिसम्बर 1945 में ‘आज’ वाराणसी में प्रकाशित हुई।
इन्होनें कुछ समय तक डॉ. रामकुमार वर्मा और महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन के साथ रहकर उनके पुस्तकों की पांडुलिपियाँ भी तैयार की। राहुल जी के रूस चले जाने पर ये हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से जुड़ गए और यहाँ पर नागार्जुन जी से घनिष्टता हो गई और उन्हीं के साथ रहने भी लगे।
इनकी चार पुस्तकें पाठकों के समक्ष आ सकी हैं जिनमें पहली पुस्तक ‘संकल्पिता’ 1942 में शारदा प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई, इसी साल दूसरी पुस्तक ‘सुभाष की विभा’ भी ज्योति प्रेस, वाराणसी से प्रकाशित हुई, तीसरी पुस्तक ‘गीतिकल्प’ 1989 में और चौथी पुस्तक श्रीधर शास्त्री जी ने भारती परिषद, प्रयाग द्वारा उनके पुत्र, सुकवि श्री प्रकाश द्विवेदी जी के सम्पादन में ‘कविता काकली’ नाम से 2006 में प्रकाशित करायी। इनकी अन्य रचनाओं में दर्जनभर पांडुलिपियाँ हैं जो आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण पुस्तक का आकार नहीं ले सकी हैं। एक सामाजिक उपन्यास ‘उगता तारा’ भी इन्होनें लिखा था, जो अप्रकाशित ही है। साहित्य के प्रति अत्यंत उदासीन होने के कारण इनके ‘द्रोणाचार्य’ एवं ‘हनुमान’ आदि महाकाव्यों की पांडुलिपियाँ भी कहीं लुप्त हो गई, जो भी इनसे मिलने आता और रचनाएँ पढने को माँगता, ये अपनी पांडुलिपियाँ थमा देते थे, कुछ ही लोग लौटाते, लेकिन ज्यादातर लोग या तो रख लेते या फिर खो देते।
15 अक्टूबर 2001 को वीरेश्वर द्विवेदी (दिल्ली) की अध्यक्षता में अकबरपुर में इन्हे ‘सारस्वत सम्मान’ से विभूषित किया गया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सन 2000 में इन्हें ‘साहित्य भूषण’ (50,000 रुपये) से भी सम्मानित किया गया। अन्य कई काव्य मंचों एवं संस्थाओं ने भी इन्हें सम्मानित किया।
माँ शारदे के इस वरद पुत्र ने अपने पैतृक आवास सेठवां में 26 फरवरी 2012 को दोपहर करीब 1:20 बजे लम्बी बीमारी के बाद 92 वर्ष की अवस्था में अन्तिम साँसें ली। हिन्दी साहित्य जगत में टिमटिमाते तारे की तरह ‘श्रीश’ जी आज भी प्रकाशमान हैं। मुझे पूरे जीवन भर खेद रहेगा कि मैं इस विभूति का एकबार भी दर्शन नहीं कर सका और ये चले गये। इसी साल मैनें 15 मई को कागजी दुनिया में प्रवेश किया था। मैं अपनी चन्द पंक्तियाँ इन्हें समर्पित करता हूँ।
‘श्रीश’ जी मुझको रहेगा ज़िन्दगी भर यह मलाल।
आपके दर्शन से पहले ले गया आपको काल।।
जनपदीय साहित्य में है आपका शीर्ष स्थान।
शायद ही कोई हो पाये, आगे आप समान।।
– अमन चाँदपुरी (रचनाकाल -11 सितम्बर 2015)