आंकडे…
ये आंकडे है,या कि आंकडों का मिसयूज है
जनता हैरान, परेशान बहुत कनफ्यूज हैं।
वो कहते है, मंहगाई कम हो गई है
और यहां जेबों के उड रहे फ्यूज हैं॥
ईधर प्याज गुरबत के आंसू रुला रही है
दाल जेब पर कहर पे कहर ढा रही है।
पतीला सब्जी की बाट जोह थक गया है
काडाही अपने नसीब पर गम खा रही है॥
छुरी रो कर पूछ रही है, अर्थ शास्त्र का ये कैसा यूज है…
वो कहते है, मंहगाई कम हो गई है
और यहां जेबों के उड रहे फ्यूज हैं….
और वो जो गंठी के साथ, सूखी रोटी हलक से उतार लेता था।
दाल रोटी खाकर अपनी जिन्दगी गुजार लेता था।
अब डेढ सौ रुपये किलो की दाल कैसे पकाये
इस सूखे निवाले से, पेट की आग कैसे बुझाये॥
अब इन नेताओं को भला कौन समझाये, इनके अलग पैमाने है, इनके अलग व्यूज है……
वो कहते है, मंहगाई कम हो गई है
और यहां जेबों के उड रहे फ्यूज हैं….
पर एक बात सच है, कि तेरी भूख किसी चुनाव का मुद्दा नही है
गरीब तु अनाथ है, अनाथ रहेगा, यहां तेरा कोई दद्दा नही है।
तु आत्महत्या कर, या भूख से मर किसी को कोई मलाल ही नही है
क्योकिं आंकडें कहते है, मंहगाई घट गयी है, कोई भूखा मरे ये सवाल ही नही है॥
मंहगाई घट गयी, हर तरफ बस यहीं न्यूज है….
और यहां जेबों के उड रहे फ्यूज है….
सतीश बंसल
ये सस्ती का अफवाह उड़ाने को ही उड़ा देना चाहिए
उम्दा रचना