निशब्द…
जब कभी हारता है भरोसा
जब करता है
कोई अपना वार
निरुत्तर सा
हतोत्साहित मन
महसूस करता है
एक टीस
जो उतरती है
कलेजे की गहराईयों में
और किकर्त्यविमूढ
सा निहारता है
अचानक बदल से गये
परिवेश को
जड हो जाता है मस्तिष्क
शून्य होने लगती चेतना
अचेत तन
हो जाता है अचल
किसी पाषाण की मानिद
एक ही पल में
मिटने लगता हैं
नातों का वजूद
टूटने लगते है
तमाम भ्रम
हटने लगता है कुहासा
और नजर आती है
जिन्दगी की सच्चाई
एक अलग सी दुनियां
जहां ना रिश्ते है
ना प्रीत
बस निशब्द सा भविष्य
और सपनों सा अतीत….
सतीश बंसल
बढ़िया !
आपका आभार विजय जी…