आगरे का टूर खत्म हो गया था और सुबह उठते ही हम जयपुर के लिए ट्रेन में बैठ गए। कितने घंटे में हम वहां पुहंचे याद नहीं लेकिन जयपुर हमें अच्छा लगा। सबसे पहले हवा महल ही देखा। बाहर से ही देखने में अच्छा लगा और इस के भीतर गए तो टंडन साहब बता रहे थे कि यह हवा महल सवाई परताप सिंह ने बनाया था और इन के झरोखों में से महल की स्त्रियाँ हाथीओं को देखती थीं जिन पर महाराजा की सवारी और घोड़ों पर महाराजा के अहलकार होते थे ,यह बहुत ही शानो शौकत वाला नज़ारा होता था जिसमें शहर की सारी प्रजा शामल होती थी। जय पुर में बहुत देखने लाइक जगह थीं ,किले ही काफी थे। एक था अम्बर फोर्ट और महल जो बहुत ऊंचाई पर था ,और शायद एक था जयगढ़ फोर्ट जिस में एक बहुत ही बड़ी तोप थी जो कहते थे कि उस वक्त की दुनिआ में सब से बड़ी तोप थी और कभी इस का इस्तेमाल भी नहीं किया गिया था। एक था शीश महल जिस में शीशे का बहुत इस्तेमाल किया गिया था। एक कोई मंदिर था जिस का नाम तो मुझे पता नहीं लेकिन उस पर बंदर बहुत थे और हम ने बंदरों को चने खिलाये थे जो रेहड़ी वालों से मिल जाते थे। सब से ज़्यादा अच्छा हमें जंतर मंतर लगा, दिल्ली वाला जंतर मंतर इस के आगे कुछ भी नहीं था। गाइड ने हमें समझाया था कि उस समय कैसे सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण का पता लगा लेते थे और वक्त तो मिनटों तक सही होता था। इस जगह काफी फोटो हम ने लीं। जयपुर की सैर हम ने खूब की और उसी शाम उदय पुर को रवाना हो गए।
उदयपुर भी बहुत कुछ देखा लेकिन ज़्यादा अब याद नहीं ,सिर्फ यह याद है कि एक पुराना महल झील के बीच में था और हम सभी एक कश्ती में सवार हो कर वहां गए थे और वहां मैंने इस पुराने महल में एक मोर की फोटो ली थी और यह फोटो उस महल की याद दिलाती है ,एक जगह थी जिस को भूल भुलईआं कहते थे जिस में राणीआं खेला करती थी। उदयपुर से हम अजमेर चले गए। अजमेर में ख्वाज़ा मुईनदीन चिश्ती की दरगाह पर गए। वहां क्वालिओं की आवाज़ें आ रही थीं। जब हम दरगाह के नज़दीक आये तो एक इमाम साहब आये और हम को बोले , “बेटा जी, यहाँ कुछ जेब कतरे हैं उन से बच कर रहना और अपना कीमती सामान संभाल के रखना “. यह तो बहुत अच्छा हुआ क्योंकि कोई आधे घंटे बाद ही हमनें सुना ,किसी का बटुआ चोरी हो गिया था। मैंने इस दरगाह की फोटो ली और एक मंदिर को देखने चले गए। इस मंदिर का नाम किया था ,पता नहीं लेकिन यहां भी बंदर बहुत थे।
कुछ देर बाद हम झांसी की ओर चले गए। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के बुत्त के पास हम ने फोटो खिचवाई। यह बुत्त एक ऊंचे प्लैटफॉर्म पर बना हुआ था। रानी के हाथ में तलवार थी और पीठ पीछे अपना बेटा बाँध रखा था। प्लैटफॉर्म पर रानी का उस समय का इतहास लिखा हुआ था जब वोह अंग्रेज़ों के साथ लड़ाई लड़ रही थी। हम सभी ने श्रद्धा से रानी की तरफ अपने शीश झुका दिए। इस के बाद हम किले की तरफ चल दिए और वोह सीन याद करने लगे जब वोह अंग्रेज़ों के साथ लड़ रही थी ,उस वक्त झांसी की रानी फिल्म भी बनी थी। इस फिल्म में जख्मी हालत में रानी जब अंतिम साँसों पर थी तो उस का घोडा उसे एक साधू की कुटिया पर ले आया था , उस साधू ने उन दोनों माँ बेटे को अपनी कुटीआ में रख कर कुटीआ को आग लगा दी थी। इस के बाद हम किला देखने चल पड़े। सारे किले को ध्यान से देखा और टंडन साहब इतिहास भी बता रहे थे। फिर गाइड हमें उस जगह ले आया यहां से लक्ष्मी बाई ने घोड़े के साथ छलांग लगाईं थी। ऐतिहासिक टूर का मज़ा तब ही आता है जब कोई उस समय का नक्शा हमारे सामने रख दे। गाइड हमें उन दो मुसलमान जरनैलों के बारे में बता रहा था जिन्होंने उस जगह से तोपों के गोले दागे थे। मुझे उन के नाम तो याद नहीं लेकिन उस गाइड ने बहुत कुछ बताया था।
कुछ देर बाद हम ग्वालियर के किले को देखने चल पड़े। किले को जाने से पहले ही एक छोटा सा होटल था। टंडन साहब ने होटल वालों को खाने का आर्डर दे दिया कि हम दो घंटे में वापस आएंगे ,जब तक खाना तैयार रखना। किले की चढ़ाई हम चढ़ने लगे ,बहुत ऊंचा है यह किला। चढ़ते चढ़ते हमारी सभ की सांस फूल रही थी। किले में दाखिल होने से पहले ही टॅंडन साहब ने हम को बताया और दिखाया जिस जगह अंग्रेज़ों के तोपों के गोलों के निशाँ लगे हुए थे क्योंकि यहां भी अंग्रेज़ों के साथ लड़ाई हुई थी। किले के ऊपर जा कर हम बहुत घूमें। किला बहुत बड़ा था लेकिन एक जगह में हम सभ की दिलचस्पी हुई ,वोह थी जिस जगह सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द को जहांगीर ने बारह साल कैद कर के रखा था। बहुत छोटी सी जगह थी और तब तो सिर्फ दीवारें ही खड़ी थीं. अब तो कहते हैं इस जगह गुरदुआरा बना हुआ है। दो घंटे हम घुमते रहे और नीचे आ गए। हमें बहुत भूख लगी हुई थी, जब तक होटल वालों ने खाना तैयार कर रखा था,सिर्फ रोटीआं ही बनानी थी। फटा फट हमारे आगे थालिआं आने लगीं। तूर की दाल और ककड़ी की सब्ज़ी थी, ऐसा लग रहा था जैसे हम जनम जनम के भूखे हों। होटल वालों ने दुबारा आटा गूँधा और हमें खुश कर दिया। एक रूपए थाली की कीमत थी और शायद हमने ज़्यादा खा लिया था, इस लिए होटल वाले और पैसे मांगने लगे। टंडन साहब ने पांच रूपए और दे दिए जिस से वोह खुश हो गए।
रात ग्वालियर में ही काटी और सुबह को दौलताबाद की तरफ चल दिए। शहर में कुछ घूमा और किले को देखने चल पड़े। यह वोह ही किला था जो महम्मद तुगलक बेवकूफ बादशाह के पास था। अपनी दिल्ली की प्रजा को मुहमद तुगलक ने यहां देवगिरि में आ जाने का हुकम दे दिया था और बाद में फिर वापस जाने का आर्डर कर दिया था, जिस से उस की आधी प्रजा या तो मर गई थी या बिमारी की हालत में दुःख झेल रही थी। किला बहुत ऊंचा था। कहते थे उस के छै सौ स्टैप थे। मैं और हमारे संस्कृत के प्रोफेसर सब से आगे थे और पीछे पीछे सभी आ रहे थे। टंडन साहब कुछ भारी शरीर के थे ,इस लिए कुछ ऊपर चढ़ कर बैठ गए। शिखर पर तुगलक की एक तोप थी। कुछ देर रुक कर वापस आने लगे। किले की हालत तो बहुत खस्ता थी लेकिन जिस समय अपनी अच्छी हालत में होगा बहुत ही कमाल का होगा। नीचे आ कर हम औरंगाबाद की ओर चल पड़े। औरंगाबाद पहुंच कर पहले हम ने एक सरदार जी के छोटे से ढाबे में रोटी खाई। इस सरदार जी के वोह लफ़ज़ मुझे अभी तक याद हैं ,” भाग्वाने ! उठ जल्दी रोटी पका, हमारे भाई पंजाब से आये हैं “. हम बैठ गए और भीतर से दाल सब्ज़ी के साथ छोटे छोटे तवे पर पकाये फुल्के आने लगे। लगता था कि दोनों मिआं बीवी ही इस छोटे से ढाबे को चलाते थे। जी भर कर हम ने खाया। इस के बाद हम औरंगज़ेब की वाइफ का मक़बरा देखने चल पड़े जिस को बीबी का मक़बरा कहते हैं । यह मक़बरा औरंगज़ेब के बेटे ने अपनी माँ के लिए बनाया था। इस की शकल बिलकुल ताज महल जैसी है। औरंगज़ेब की कबर भी देखि जिस पर एक छोटा सा पौदा लगा हुआ था। गाइड ने बताया था कि औरंगज़ेब ने बताया था कि उस के मरने के बाद उस की कबर बिलकुल साधाहरण मट्टी से बनाई जाइ और उस का मुंह नंगा रहने दें।
औरंगाबाद से हम एलोरा केवज़ देखने चल पड़े। यह एक जंगल में घिरी हुई गुफाएं हैं जिन में बुध जैन और हिन्दू इतिहास छुपा हुआ है। यह हमारे लिए एक नया तज़ुर्बा था जिस में इतनी मूर्तिआं हम ने देखि। इन को बताना ही बहुत मुश्किल है ,इतना बड़ीआ आर्ट ! एक ही पत्थर के पहाड़ को काट कर सभी मंदिर और उन में मूर्तिआं बनी हुई हैं. परसीज़न इतना कि कोई नुकस निकाल ही नहीं सकता। याद नहीं कितनी गुफाएं थीं लेकिन हमें दो घंटे लग गए। ऊपर नीचे जाना पड़ता था लेकिन हम जवान थे। सभी गुफाएं देख कर हम बाहर आ गए और वहां एक छोटा सा होटल था और वहां लिखा हुआ था ,” सिर्फ एक रूपए की थाली “. हम ने जी भर के खाया और जब टंडन साहब पैसे देने लगे तो वोह बहुत पैसे मांगने लगे। टंडन साहब होटल वाले से बहस लगे कि एक रूपए की थाली के हिसाब से इतने रूपए बनते थे तो वोह कहने लगे कि थाली में सिर्फ दो रोटीआं थीं और इस से ज़िआदा खानी हो तो एक्स्ट्रा लगते थे लेकिन यह कहीं भी नहीं लिखा था। इस बात से और लोग भी हमारे हक़ में आ गए और होटल वाले को मानना पड़ा।
वहां से निकल कर हम ने कोई ट्रेन पकड़ी जो अजंता केव्ज़ को जाती थी। यह केव्ज़ काफी दूर थीं। सुबह को हम वहां पुहंचे और अजंता केव्ज़ देखने चल पड़े। यह हमें अलोरा केव्ज़ से भी अच्छी लगीं। इन में पेन्टिंग्ज़ बहुत थीं जो कुछ कुछ समय के प्रभाव से डैमेज हो चुक्की थीं। हम ने ऐडवर्टाइज़मेंट तो बहुत देखि थी जैसे अजंता पैन,अजंता होटल , अजंता क्लाथ हाऊस अतिआदिक जिन पर एक मुकट पहने इस्त्री की फोटो होती थी लेकिन यहां आ कर पता चला कि यह फोटो अजंता केव्ज़ की इन पेंटिंग की कापी थीं। इन गुफाओं में हम ने फ़्लैश लगा कर फोटो खिंचवाईं। एक केव में महात्मा बुध का एक बहुत बड़ा बुत्त था ,जिस के साथ खड़े हो कर मैंने फोटो खिचवाई जो अभी भी मेरे पास है लेकिन अँधेरे में हमें यह पता नहीं चला था कि यहां धूल मट्टी बहुत थी। बाहर आये तो मेरे सारे कपडे खराब हो गए थे। खैर हम ने बहुत मज़ा किया और अपने को खुशकिस्मत समझते थे कि हमें यह केवज़ देखने को मिलीं। हमारा अगला सफर था नंदेड़ हज़ूर साहब जाने का। हम मनमाड रेलवे स्टेशन पर उतरे। वहां बहुत सी बैल गाड़ियां थीं जिन के बैलों के सींग ऊपर की तरफ थे जब कि पंजाब में सींग दोनों तरफ जाते थे ,यह हमारे लिए नई बात थी। गाड़िओं वाले ज़्यादा लोग सिंह ही थे लेकिन सभी हिंदी बोलते थे जो हमारे देखने को भी एक नई बात ही थी। हम गाडिओं में बैठ गए और जल्दी ही गुरदुआरे पौहंच गए। पहले हम ने माथा टेका और फिर लंगर में खाना खाया। यहां यह भी बता दूँ कि उस समय गुरदुआरे की जगह इतनी बड़ी नहीं होती थी लेकिन आज तो बहुत कुछ बन गिया है। एक सिंह जी हमारे साथ रहे वोह हमें सभी ऐतिहासिक जगहें और उन का इतिहास बता रहे थे।
गुदावरी के किनारे एक छोटा सा गुरदुआरा था जिस को बंदा घाट कहा जाता है। इस जगह की महानता बहुत है। यहां ही एक साधू माधो दास रहा करता था जिन के बहुत से चेले थे और उन से डरते थे क्योंकि कहा जाता था कि उन के वष मे बहुत शक्तीआं थीं। जब सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह पंजाब से यहां आये तो इसी स्थान पर आये थे। माधो दास उस वक्त कहीं बाहर गिया हुआ था। गुरु गोबिंद सिंह जी ने उस के इस स्थान पर कुछ बकरे काट दिए। जब इस बात का पता माधो दास को चला तो वोह आते ही देख कर आग बबूला हो गिया और उस ने गुरु गोबिंद सिंह जी को बहुत बुरा भला कहा जो उस समय उस की ही एक चारपाई पर बैठे थे. माधो दास ने अपने जादू मन्त्रों से गुरु जी को नुक्सान पौहंचाना चाहा लेकिन वोह बैठे रहे। माधो दास क्रोधित हो कर बोला ,” तुम ने यह जीव हत्या वोह भी मेरे धर्म अस्थान में क्यों की ?” गुरु गोबिंद सिंह जी बोले ,” ओ पाखंडी ,तुझे इस बकरे की तो बहुत फ़िक्र है लेकिन जो हमारे देश में मुग़ल हिन्दुओं को मार रहे हैं ,उन की बहु बेटिओं को गुलाम बना कर गज़नी में बेचा जा रहा है ,उस की फ़िक्र कोई नहीं ?” यह सुन कर माधो दास गुरु जी की यह बातें सुनकर माधो दास उन के चरणों में आ गिरा। गुरु जी बोले ,”तुम कौन हो ” माधो दास बोला ,”मैं एक बन्दा हूँ “तब गुरु जी बोले .,”तो आज के बाद तुम बन्दा सिंह हो “. इस के बाद गुरु जी ने उस को अमृत छकाया और उस का नाम बंदा सिंह रख दिया।
जब अचानक दो मुसलमानों ने गुरु जी को चाकू मार कर घाएल कर दिया तो गुरु जी ने उन दोनों को अपनी तलवार से मार दिया लेकिन गुरु जी के खून बहुत निकल रहा था तो एक हकीम ने आ कर जख्म को सी दिया। गुरु जी ठीक होने लगे लेकिन कुछ दिनों बाद जब उन्होंने एक तीर को कमान से जोर लगा कर खिंचा तो मांस फट गिया। अंतम समय नज़दीक आता देख गुरु जी ने बन्दा सिंह को खालसे का जथेदार मुकर्र कर दिया। गुरु जी के संसार को छोड़ने के बाद इस बंदा सिंह ने पंजाब आ कर सभी जंगलों में बिखरे हुए सिखों को इकठे किया और पहला हमला सरहंद के सूबेदार पर किया जिस ने गुरु जी के दो छोटे बेटों को जिंदा दीवार में गाड़ दिया था। बन्दा सिंह ने सरहंद की ईंट से ईंट बजा दी। इस बन्दा सिंह ने जो काम किया वोह सिख इतहास में कभी भी भूला नहीं जाएगा। इस ने पंजाब में सिखों के नाम का पहला सिक्का चलाया लेकिन उस पर अपना नाम नहीं लिखाया बल्कि गुरु नानक देव जी का नाम लिखवाया।
सिंह जी हमें यह इतिहास सुना कर हम को गुदावरी के किनारे ले गए और गुरु जी के सम्बन्ध में और भी बातें बताईं ,फिर उन्होंने हमें और भी बहुत कुछ बताया और यह भी बताया कि रात को गुरु जी के शस्त्र दिखाए जायेंगे। कुछ पैसे दे कर हमने सिंह जी को विदा किया और अपने कमरों में हम चले गए जो सिंह ने हमें पहले ही ले दिए थे। कुछ देर आराम करके हम गुरदुआरे में कीर्तन सुनने चले गए और वहां सारी संगत को गुरु गोबिंद सिंह जी के हथिआर दिखाए गए। इन हथिआरों को देख कर हम हैरान हो गए कि यह बहुत भारी थे। इस के बाद लंगर छका और अपने कमरों में आ गए। सुबह उठ कर स्नान आदी से फ़ार्ग हो कर लंगर में खाना खाया और रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े यहाँ से हमारा सफ़र मुम्बई का शुरू होना था। जिंदगी में पहली दफा सभी ने मुबई देखनी थी। एक अध्भुत्त मंजिल को मन में समेटे हम ट्रेन में बैठ गए।
चलता …
यात्रा के साथ साथ इतिहास की जानकारी भी. बहुत खूब भाई साहब ! पढ़कर अच्छा लगा.
विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरा लेख पढ़ा. आपने बड़ी खूबसूरती से अतीत की घटनाओं को सहेजा है। लेख के साथ साथ आपकी भावनाओं का भी पता चलता है। आप धन्य है जिन्होंने एक बार me इतनी लम्बी यात्रा की और देश की विरासत को देखा, जाना और समझा तथा हमें भी उस yatra ke स्वाद का लुत्फ़ दिया। हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन भाई , मैं अपने आप को भाग्य शाली ही कहूँगा कि मैंने इस टूर के पैसे दे दिए जो उस वक्त ज़िआदा लगते थे लेकिन अब तो सब कुछ भूल गिया है और इन पैसों ने मुझे एक ऐसी चीज़ दी है जो कभी भूलती नहीं . हाँ ,बहुत बातें भूल गई हैं लेकिन जो देखा कभी भूल ही नहीं सकता .
धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. आपने जो कहा है वह सवा सोलह आने सत्य है इसलिए कि यदि किसी कारण आपने टूर के पैसे बचाये होते तो आप उन मधुर व गवेषणात्मक स्मृतियों व अनुभवों से वंचित हो जाते। वस्तुतः मधुर स्मृतियाँ भी निजी पूंजी के समान है। धन्यवाद।
बिलकुल सही कहा मनमोहन भाई .