ग़ज़ल
मुझे ता-ज़िंदगी फिर रास्तों से प्यार हो जाता,
जो मेरा हमसफर बनने को तू तैयार हो जाता
मेरे दिल से तेरे दिल तक निकलता रास्ता कोई,
ना रहता गम कोई जो तू मेरा गमख्वार हो जाता
लहरों से रहा डरता मैं साहिल पर खड़ा होकर,
ज़रा हिम्मत जुटा लेता तो दरिया पार हो जाता
ना होती जो बुरी आदत हमें ये सचबयानी की,
तुम्हारे शहर में अपना भी कारोबार हो जाता
हमारी जंग का अंजाम फिर कुछ और ही होता,
मेरा दुश्मन भी जो मेरी तरह खुद्दार हो जाता
मेरी जायदाद के हिस्से सबने कर लिए लेकिन,
मेरी गज़लों का भी कोई तो वारिसदार हो जाता
— भरत मल्होत्रा।