ग़ज़ल
हम मेहनतकश इंसानों का बस इतना सा अफसाना है,
सुबह हुई तो घर से निकले रात हुई घर जाना है
दब के ज़रूरत के नीचे दम तोड़ा हर इक ख्वाहिश ने,
अब अपने लिए तो जीना बस साँसों का ताना-बाना है
दोस्त ही नहीं हमको तो अज़ीज़ हैं अपने दुश्मन भी,
प्यार का हो या नफरत का हर रिश्ता हमें निभाना है
दो ही कौमें शहर में हैं मज़लूमों और दंगाइयों की,
घर ना तुझसे जला कोई तो तेरा घर जल जाना है
शहर के लोगों ने शायद मजहब ही अपना बदल लिया,
मंदिर मस्जिद वीरान पड़े आबाद मगर मयखाना है
गज़ल पढ़ी जो देख के उनको मैंने वफा की रस्मों पर,
सारी महफिल बोल उठी कि वल्लाह गज़ब निशाना है
हम जैसे खाकनशीनों से तुम पूछो लुत्फ फकीरी का,
अपनी मर्जी के मालिक हैं और ठोकर तले ज़माना है
— भरत मल्होत्रा।
बहुत शानदार ग़ज़ल !