दोहा =
माया मुई शरीर है, पिजड़ा कंचन देश,
लोभ मोह छाया रही , कलुषित मन का वेश
चंदन जीवन भर घिसे , मस्तक गया न हाथ,
लोभ मोह माया बसी, कुछ भी गया न साथ
मान दिए गिरगिट हुआ , बदला रंगत रूप
राज कहे विषधर अहे, सज़रा मानव रूप
चंदन मस्तक पे रहे, शीतल होय शरीर
वंदन हरिहर का करे , पावन होय समीर
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
धन्य है आप की लेखनी आदरणीय, उन्नत भाव उन्नत छंद सारगर्भित कहन हेतु सादर बधाई स्वीकारें मान्यवर
आदरणीय जी आपकी आत्मीय पसंद , हौसला अफजाईके लिए तहेदिल से शुक्रिया , कोटिश आभार एवम् सादर नमन जय माँ शारदे==
राज जी दोहे अछे लगे . बचपन में गेहूं की कटाई के वक्त किसानों को दोहे झूम झूम कर गाते सुना करते थे . यह दोहे पंजाबी में होते थे लेकिन दोहे किसी भी भाषा में हों , अछे लगते हैं .
आदरणीय सादर नमस्ते , हमारे यहाँ के प्रधान जी गेहूँ काटते समय रामलीला मे प्रचलित राधेश्याम तर्ज पर वीर रस के मंचन जैसे भाव आ जाते हैं ,, आपके हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार
आदरणीय सादर नमस्ते ,आपके हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार