गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

प्यार मैं बस तुम्ही से करता हूँ
रोज जीता हूँ रोज मरता हूँ ।

लोग पत्थर बुलाते है मुझको
शीशे सा टूटकर बिखरता हूँ ।

आप मिलने कभी नहीआते
मैं कहाँ वादे से मुकरता हूँ ।

पूछते राज सब ख़ुशीयों का
नेकियां सबके साथ करता हूँ ।

पाप ये किस जनम किया मैंने
जिंदगी भर उसी को भरता हूँ ।

धर्म से है ख़ुशी मेरी शायद
देखकर क्यों उन्हें निखरता हूँ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • महातम मिश्र

    बहुत खूब आदरणीय बहुत खूब

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