संस्मरण

मेरी कहानी 69

जब वोह सिंह मुझे छोड़ कर गए तो मैं ने एक पीस ब्रैड का और एक पीस मीट का खा कर बस कर दी किओंकि मुझे कुछ स्वाद नहीं लगा। डैडी ने बताया कि दुसरे दिन की उन्हों को छुटी थी किओंकि एअरपोर्ट पर मुझे रिसीव करने के लिए उन्होंने छुटी ली हुई थी। रात बहुत हो चुक्की थी और हम सो गए। सुबह उठे तो पहले डैडी ने समझाया कि टॉयलेट बाहर थी। वोह मेरे साथ गए और मुझे सभ कुछ समझाया। यह टॉयलेट रूम मुश्किल से तीन फ़ीट चौड़ा और चार फ़ीट लम्बा होगा। ऐसी टॉयलेट को आज कोई जानता ही नहीं है। पानी वाली टैंकी बहुत ऊपर थी जिस की बड़ी सी जंजीर को खींच कर पानी फ्लॅश होता था। टॉयलेट से फार्ग हो कर मैं बाहर आया तो डैडी ने मुझे छोटा सा किचन दिखाया जिस में गैस कुकर था और उस के चार बर्नर थे। साथ ही बर्तन धोने के लिए सिंक था। गैस कुकर मैंने ज़िंदगी में पहली दफा देखा और देख कर हैरान हुआ कि खाना बनाना तो बहुत आसान था। घर के पीछे छोटा सा गार्डन था जो कोई होगा पंदरा फ़ीट चौड़ा और बीस फ़ीट लम्बा। इस में घास ही घास था ,कोई फूल बगैरा नहीं था।

बाहर निकल कर देखा स्ट्रीट के सभी घर एक दूसरे घर के साथ जुड़े हुए थे और उन सभ की छतें स्लेट की और ऐंगुलर थीं। देख कर मुझे बहुत अजीब लगा कि घर तो बहुत छोटे थे। हमारा राणी पुर वाला घर तो इस से तीन गुणा बड़ा होगा। डैडी ने चाय बनाई और सिटिंग रूम में बैठ कर हम पीने लगे। तभी ऊपर के दूसरे कमरे से निकल कर एक और सज्जन आये और साथ ही उन का बेटा भी आया। उन्होंने हम को सत सिरी अकाल बोला और इंडिया का हाल चाल पुछा। इन सजन का नाम था अर्जन सिंह लेकिन उस को गियानी जी कह कर बुलाते थे। उन के बेटे का नाम था जसवंत सिंह। मेरी और मेरी सारी फैमिली की ज़िंदगी में इन गियानी जी और उन के सारे खानदान का बहुत बड़ा अहम रोल है और अभी तक हम मिलते हैं चाहे वोह कुछ दूर रहते हैं।

गियानी जी का गाँव था शादी पुर जो नूर महल के करीब है। बातें करने लगे। गियानी जी ने बहुत अच्छी बातें कीं ,सच्च कहूँ तो इतनी अच्छी बातें मैंने ज़िंदगी में पहली दफा सुनी ,मुझे बहुत आनंद आया। गियानी जी क्लीन शेव ,कुछ दुबले से थे और उन का लड़का जसवंत मेरी उम्र का था और क्लीन शेव था। इंग्लैंड आ कर डैडी भी क्लीन शेव हो गए थे और पहली दफा उन्हें ऐसे देख कर मुझे एक झटका सा लगा था। गियानी जी के साथ मैं जल्दी ही घुल मिल गिया था। मैंने शर्माते शर्माते पूछ ही लिया कि वोह सभी क्लीन शेव क्यों थे ,तो डैडी तो चुप रहे लेकिन गियानी जी बोले ,” बेटा ! हम इस देश में आये हैं और इस की कीमत भी हमें अदा करनी पड़ रही है क्योंकि एक तो हम यहां काले हैं और दूसरे अँगरेज़ लोग पगड़ी देख कर हम से नफरत करते हैं और काम नहीं देते।

हज़ारों मील दूर से हम आये हैं ,काम के बगैर यहां रहा नहीं जा सकता ,खर्च इतना है कि पैसे के बगैर हम सब ज़ीरो हैं ,मैं तुम्हें बताता हूँ कि मैं श्रोमणि कमेटी अमृतसर में बहुत से गुरदुआरों के अकाउंट चैक करने के लिए इंस्पैक्टर लगा हुआ था और मैंने अमृत भी छका हुआ था , काफी इज़त थी लेकिन यहां आ कर कोई काम मिलता नहीं था ,मेरी पगड़ी और दाहड़ी को देख कर गोरे हंसने लगते थे और नो वेकेंसी बोल देते थे। सोचता था पीछे कैसे जाऊं क्योंकि मैं तो किराया भी शाह जी से उधार ले के आया था और वोह तब मुझे मिला जब मैंने एक खेत की गरंटी लिख कर दी थी। दुखी हो कर मैंने बाल कटवा दिए और कुछ दिनों बाद मुझे गुड यीअर टायर फैक्ट्री में काम मिल गिया। फिर मैंने जसवंत के बाल भी कटवा दिए और इस को भी स्पीयर ऐंड जैक्सन टूल फैक्ट्री में काम मिल गिया है ।

इसी तरह तेरे डैडी तो एक कारीगर आदमी थे लेकिन उन को भी काम नहीं देते थे तो बाल कटवाने के बाद बिल्डिंग साइट पर एक अच्छे काम पर लग गए जो कई गोरों से भी अच्छा है और पैसे भी उन से ज़्यादा हैं , सो बेटा जी इंडिया की बातें भूल जा और तू भी अपने बाल कटवा दे और कालज की बातें भी अब छोड़ दे क्योंकि लंदन एक तो बहुत दूर है दूसरे लंदन राजधानी है और वहां के खर्चे इतने ज़्यादा हैं कि तेरे डैडी अफोर्ड ही नहीं कर सकते ,इस लिए कोई काम मिल जाए तो तेरे लिए अच्छा होगा लेकिन काम भी मुश्किल से मिलते हैं। कुछ इंडियन हैं जो गोरों को कुछ पैसे दे कर काम दिलवा देते हैं और कुछ खुद रख लेते हैं। इस के बगैर कोई चारा भी नहीं है क्योंकि यहां हर दम घर रहना भी बहुत मुश्किल है”

गियानी जी की बातें सुन कर मैं बर्फ जैसा ठंडा हो गिया और पहले ही दिन उदास हो गिया। इंग्लैण्ड आने का उत्साह खत्म हो गिया। गियानी जी तीन शिफ्टों में काम करते थे 6 से 2 वजे तक ,2 से 10 वजे तक और 10 से 6 वजे तक। इस हफ्ते गियानी जी की रात की शिफ्ट थी जो रात 10 वजे शुरू हो कर सुबह 6 वजे खत्म होती थी। कुछ देर बाद मैंने डैडी को नहाने के लिए बोला तो डैडी हंस पड़े कि “यहां तो हफ्ते में एक दफा ही नहाना पड़ता है ,वोह भी पैसे दे कर। इस हफ्ते क्योंकि गियानी जी की रातों की शिफ्ट है ,इस लिए यह तुझे बाथ ऐवेन्यू ले जाएंगे और सभ कुछ समझा देंगे”। कुछ देर बाद डैडी जी ने ब्रेकफास्ट बनाया जो टोस्ट बेक्ड बीन्ज़ और एग्ग का था। ब्रेकफास्ट मुझे सवादिष्ट लगा। फिर डैडी ने मुझे कपडे चेंज करने को कहा और बोले ,” अब हम बाहर जाएंगे ताकि तुझे एरिये से वाक़फ़ी हो जाए “.

कपडे बदल कर मैं और डैडी घर से बाहर जाने लगे। यहां मैं यह भी बता दूँ कि यह घर वुल्वरहैम्पटन की 19 मॉस्टिन स्ट्रीट था जो स्टैवले रोड से निकलती है। बाहर आ कर मैं मकानों की ओर देखने लगा जो सबी एक जैसे लगते थे। अब कहीं कहीं इंडियन लोग दिखाई देने लगे जो सभी क्लीन शेव ही थे। वोह मेरी ओर देखते और आपस में बातें करने लगते कि ” यह भाई बंद नया नया आया लगता है “. अपने लोगों को सबी आपस में भाई बंद कहते थे और एक लफ़ज़ और भी था जो उस समय बहुत मशहूर था। क्योंकि ज़्यादा तर लोग अनपढ़ ही होते थे ,इस लिए कभी किसी अँगरेज़ से बात करनी होती तो एक दूसरे को पूछते ,” क्यों भाई बात जानते हो ?”. बात के अर्थ होते थे इंग्लिश जानना। यह बहुत मुश्किल काम था।

इस लिए हर शनिवार और रविवार को अनपढ़ लोग गियानी जी के पास आते रहते थे और गियानी जी सबी के फ़ार्म भरते ,उन के घरों को खत लिखते और कभी कभी अगर किसी का वकील के साथ कोई काम होता तो वीक डेज़ में गियानी जी उन के साथ जाते। लिखना भूल ना जाऊं ,गियानी जी अब इस संसार में नहीं हैं लेकिन उन्होंने लोगों के उस वक्त इतने काम किये और वोह भी एक पैसा भी लिए बगैर कि उन की समृति को नमन करता हूँ। वोह चाहते तो उस वक्त हज़ारों पाउंड बना लेते लेकिन जितनी कुर्बानी उन्होंने की शायद कोई नहीं कर सकता ,उन्होंने जो जो काम किये उन को मेरी कलम लिख नहीं सकती। उस वक्त कुछ आदमी थे जिन्होंने लोगों से बहुत पैसा बनाया था। गियानी जी हर सुबह जपुजी साहब का पाठ करते थे और शाम को रह्ऱस का पाठ करते थे। अगर काम पर होते तो काम करते वक्त मुंह में पाठ करते रहते।

मैं और डैडी चले जा रहे थे और कभी कभी रास्ते में कोई डैडी को जानने वाला मिलता तो वोह उन से बातें करने लगते। वोह मेरे बारे में पूछता तो डैडी जी बताते कि मैं उन का बेटा हूँ और कल ही इंडिया से आया हूँ ,फिर डैडी उस को मेरे लिए स्फारश करते कि वोह मेरे लिए अपनी फैक्ट्री में काम देखें। कुछ देर बाद हम एक स्ट्रीट में गए ,जिस का नाम था हैरो स्ट्रीट। एक दरवाज़े पर डैडी ने दस्तक दी और कुछ देर बाद एक औरत ने दरवाज़ा खोला। हम ने सत सिरी अकाल बोला और भीतर चले गए। भीतर एक सज्जन थे जिस का नाम डैडी ने चनन सिंह बताया। और यह भी बताया कि यह चनन सिंह मेरे मामा जी के दूर से भाई लगते थे और इन का एक भाई अमर सिंह किसी और स्ट्रीट में रहता था। जब परदेस में जाते हैं तो अपना आदमी देख कर कितनी ख़ुशी होती है , यह उस दिन मुझे अहसास हुआ। सुबह का बुझा हुआ मन फिर खिल उठा ,कुछ अपनापन देखने को मिला। चाय पानी पी कर हम फिर बाहर आ गए।

डैडी ने जो बात बताई वोह उस वक्त हमारे लोगों के लिए एक वरदान बन कर आया था ,वोह था इंग्लैण्ड के पब। इंडिया के लोगों को यह शायद अजीब और असभ्य लगे लेकिन इन पब्बों ने हमारे लोग़ों को बहुत सहारा दिया था क्योंकि दस दस बारह बारह घंटे काम करके थक्के टूटे हमारे लोगों को इन पब्बों में आ कर दो बीअर के ग्लास पी कर सारे दिन की थकावट उत्तर जाती थी और पीछे इंडिया की चिंताओं से मुक्ति मिल जाती थी। और कोई ऐसी जगह होती ही नहीं थी ,ना कोई गुरदुआरा मंदिर मस्जिद होते थे यहां जा कर बातें करके मन के गुबार निकाल सकें। दूसरे एक बात और भी होती थी कि किसी का भी इंग्लैण्ड में पक्के तौर पर रहने का कोई इरादा नहीं था। लोग चार पांच साल काम करते ,पैसे पीछे भेजते रहते और कोई गाँव में नया घर बनाता और कोई खेती के लिए ज़मीन खरीदता। अब एक नया ट्रैंड शुरू हो गिया था और वोह था एक दूसरे की देखा देखी अपने बेटों को इंग्लैण्ड बुलाना ताकि और पैसे जमा हो सकें और गांव में और ज़मीन खरीदी जा सके।

डैडी मुझे एक पब्ब में ले गए ,सभी गोरे मेरी तरफ देखने लगे ,शायद सोचते होंगे कि एक नया इंडियन आ गिया। डैडी ने मुझ से पुछा कि किया मैं बीअर लूंगा ? जब मैंने नहीं बोला तो वोह काउंटर पर गए ,अपने लिए बियर का ग्लास ले आये और मेरे लिए कोक का ग्लास ले आये। फिर मुझे बियर के नाम बताने लगे ,” जो मैं पी रहा हूँ यह माइल्ड बियर है ,एक होती है बिटर ,गिनीज़ ,सैम ब्राऊन ,लागर ,मैकेसन , न्यू कैसल ब्राऊन और जो उलटी टंगी हुई बोतलें हैं उन में विस्की ब्रांडी और अन्य शराबें “. डैडी मुझे बहुत कुछ बताते गए और मैं सुनता गिया लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया। पब्ब से हम बाहर आये और घर को वापस चलने लगे। घर आये तो गियानी जी अभी भी बैठे अखबार पड़ रहे थे। फिर बातें होने लगीं और मुझे कहा गिया कि दूसरे दिन मैं गियानी जी के साथ जा कर बारबर से अपने बाल कटवा आऊं।

शाम हुई तो किचन में डैडी जी ने सब्ज़ी बनाई ,आटा गूँधा और रोटीआं पकाने लगे। जसवंत जो सुबह का काम पर गिया हुआ था ,आ गिया था और वोह भी रोटीआं पकाने लगा। जसवंत के लिए सब्ज़ी गियानी जी बना दिया करते थे ,वोह खुद रोटी नहीं खाते थे। उन का खाना बहुत शुद्ध और अच्छा होता था और ऐसा खाना कोई भी खाता नहीं था , इस के बहुत से कारण थे जिन को मैं बाद में लिखूंगा । हम सिटिंग रूम में बैठ कर रोटी खाने लगे और गियानी जी भी अपना खाना खा कर गुड ईयर फैक्ट्री को काम करने चले गए क्योंकि उन की नाइट शिफ्ट थी। मैं बताना भूल गिया ,इसी मकान के एक कमरे में एक काला काली यानी जमेकन पति पत्नी भी रहते थे। पती का नाम था लल और पत्नी का नाम था जीन। वोह भी अपना खाना बनाने लगे। इतने काले लोग पैहली दफा देख कर मैं तो डर सा गिया था । उन के घुंगराले बाल देख कर भूत चुड़ैल का भर्म होता था। वैसे भी लल तो बहुत शरीफ था लेकिन जीन इतनी बद्तमीज़ थी कि बात बात पर हमारे साथ झगड़ती रहती थी। इन लोगों का खाना भी बहुत अजीब होता था। यह लोग बीफ का एक बड़ा सा टुकड़ा गैस कुकर की ग्रिल में रख देते थे जो घंटों कुक होता रहता था ,इस की बू हमें बहुत बुरी लगती थी। हरे केले और यैम जो जमेका से आते थे ,इन का मेन स्टेपल फ़ूड था। इस के इलावा बीन्ज़ और अन्य सब्जिआं होती थीं। कभी कभी मक्की के आटे से डम्पलिंग बनाते थे जो गोल गोल लड्डू जैसे बना कर ग्रिल में कुक करते थे. संडे को इन का स्पेशल डिनर होता था जिस में इन का एक सपैशाल ड्रिंक होता था जिस में गिनीज़ बियर मिल्क मैकेसन बियर और कुछ जड़ी बूटीआं डाली हुई होती थीं। गिनीज़ में आयरन बहुत होता है। इतना रिच खाना तो हम भारती पचा भी नहीं सकते। इसी लिए यह लोग बहुत तगड़े होते हैं।

खाना खा कर हम ऊपर अपने कमरे में चले गए। डैडी जी ने एक टैलीवियन अपने कमरे में रखा हुआ था जिस का बॉक्स लकड़ी का बना हुआ था और स्क्रीन मुश्किल से पंद्रा सोला इंच होगा। यह टैलीवियन ऐसा था जैसा मैंने दिली कनॉट प्लेस में देखा था। जसवंत भी हमारे कमरे में आ कर बैठ गिया। मेरा पिता जी का नाम साधू सिंह था और जसवंत उन्हें साधू सिंह कह कर ही बुलाता था। जसवंत की दोस्ती पिता जी के साथ ऐसे थी जैसे वोह हम उम्र हों ,इस का एक ही कारण था कि जब वीकैंड पर बियर पीने पब्ब को जाते थे तो इकठे जाते थे और इन दोनों की खूब बनती थी और इसी तरह मेरी और गियानी जी की बनती थी । कुछ देर बातें करने के बाद जसवंत अपने कमरे की ओर चले गिया जो बिलकुल सामने ही था और दोनों बाप बेटा भी एक बैड पर ही सोते थे। उस समय के हालात और शर्मनाक या दुखद बात को मैं अगर नहीं लिखूंगा तो उस समय के इतहास से बेइंसाफी करूँगा और वोह है अपने अपने कमरों में पिछाब की बाल्टीआं रखना। टॉयलेट क्योंकि दूर होती थी और रात को ख़ास कर सर्दियों में बाहर जाना बहुत मुश्किल था ,इस लिए रात को पिछाब बाल्टी में ही कर लेते और सुबह को टॉयलेट जाते वक्त बाल्टी साथ ले जाते थे । इस तरह के दिन हम ने देखे हैं। यह बातें आज के बच्चों को पता नहीं है। कहने को हम वलाएत में रहते थे लेकिन यह बात हम इंडिया में सोच भी नहीं सकते थे। खैर ,इस बात को याद करके मैं कुछ भावुक हो गिया हूँ ,इस लिए इस कांड को यहीं विराम देता हूँ।

चलता…

 

4 thoughts on “मेरी कहानी 69

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी किश्त पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। दूर के ढोल सुहावने एक कहावत है। लगता है आपने भी लन्दन पहुँच कर इसका कुछ कुछ अनुभव किया होगा। विदेशों में बहुत सी बातें अच्छी हैं। हमारे देश में क्योंगी रूढ़िवादिता और अंधविस्वास हावी रहे इसलिए हम संसार में पिछड़ गए। मुझे लगता है जो सुख यहाँ रहकर है वह कहीं नहीं है। हार्दिक धन्यवाद महोदय।

    • मनमोहन भाई , हम बहुत बुरे वक्त में से गुज़रे थे ,हम इंडिया जा कर सब को बताते थे लेकिन हमारी कोई मानता ही नहीं था .आज समय बहुत बदल गिया है .कोई वक्त था गोरे लोग हम को डर्टी इंडियन कहते थे लेकिन आज हमारे घर गोरों से कोई कम नहीं हैं बल्कि उन से अछे ही कहूँगा . मेरे पत्नी को जोड़ों का दर्द बहुत है ,इस लिए दो हफ्ते बाद एक गोरी हमारे घर की एक एक चीज़ साफ़ कर देती है और हम उस को दस पाऊंड दे देते हैं , इस से ही वोह खुश हो जाती है लेकिन हमारे उस समय में तो हम को यह लोग बहुत नीचा समझते थे . मैं वोह समय लिखना चाहता हूँ किओंकि यह हम बिदेसिओं का पुराना इतहास है .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    मार्मिक लेखन

    • धन्यवाद ,विभा बहन जी .

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