साहित्यकार और सम्मान वापसी
किसी भी भाषा का साहित्य किसी न किसी साहित्यकारों द्वारा ही रचित होता है और साहित्यकार का निष्पक्षता के आभाव में किसी न किसी विचारधारा से सम्बद्ध भी होते हैं | जो मानवीय संवेदनाओं के तहत एक आवश्यक प्रक्रिया के मातहत होता ही है |
बेशक, विचारधाराएँ वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, या फिर शोषक या शोषितों के पक्षधर, पर रहे हमेशा अपने सृजनकाल से विभाजित ही | यही प्रमुख कारण रहा कि साहित्य का पलड़ा, निष्पक्षता के आभाव में, किसी न किसी ओर सदा से झुका रहा | एक कारण और भी स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है, वो है सत्ता की राजनीति और स्वार्थान्ध सम्मान पाने की ललक के परिवेश में साहित्य का राजनीति से प्रभावित होना | ऐसे में साहित्य को निष्पक्ष कहना कहाँ तक न्यायसंगत होगा ?
राजकीय सत्ता भी इन्हीं वैचारिक विभाजन के अंतर्गत चलती चली आ रही है | सभी सत्ताधारियों द्वारा अपने विचारों को पुष्ट करते हुए शासन व्यवस्था चलाना अगर लाजमी है तो प्रतिरोध भी लाजमी है |
इसी प्रक्रिया के तहत आज देश में बड़े जोर-शोर से साहित्यकारों द्वारा सम्मान वापसी का मुद्दा उछाला जा रहा है | यहाँ एक विचारणीय प्रश्न उठ खड़ा होता है कि कोई भी कलमकार किसी जाति, धर्म और स्वार्थजन्य लेखन करे तो क्या उसे निष्पक्ष साहित्यकार का दर्जा दिया जा सकता है ? निष्पक्ष साहित्यकार या कलमकार को विरले ही राजकीय सम्मान प्राप्त होता हो और न ही ऐसे कलमकार राजकीय सम्मान के मुंहताज ही होते है | उसे तो आमजनों से जो सम्मान प्राप्त होता है उसी से उन्हें वास्तविक आत्मसंतुष्टि प्राप्त हो जाती है | ऐसे कई उदाहरणों से भारत का साहित्यिक इतिहास पटा पड़ा है |
मगर, वर्तमान सम्मान वापसी की श्रृंखलाओं में मात्र उन्हीं साहित्यकारों की आत्माएं उन्हें क्यों और आज कैसे झकझोरने लगी जो राजकीय सम्मान पाने हेतु चरण चाटुकारिता तक से खुद को अलग नहीं कर पाए | तथाकथित आजादी के बाद बीते अबतक के वर्षों में देश ने न जाने कितनी अमानवीय त्रासदी झेली |
जिसमें साम्प्रदायिक असहिष्णुता के फलस्वरूप कश्मीरी पंडितों का अपने ही देश में शरणार्थी बनना, बिहार का भागलपुर दंगा, बिहार में ही अगड़े-पिछड़ों का वर्ग संघर्ष जो आज भी मुखर है जिसे वर्तमान में सत्तालोलुपों के लिए चुनावी मुद्दा बना हुआ है और राजनीतिक परिवेश में हवा दिया जा रहा है | पर, किसी तथाकथित साहित्यकारों की आत्मा के चित्कार की बात तो दूर फुफकार और संवेदना भी व्यक्त करने की हिमाकत तक नहीं जुटा पा रहे | वहीं दादरी की घटना और स्व० कुलबर्गी की हत्या पर घडियाली आंसू बहाने के बहाने सम्मान लौटाने की बात कर रहे |
आज उनकी वही आत्मायें फटने लगी | दूसरे शब्दों में, जो आत्माएं पद और प्रतिष्ठा के आलोक में मृतप्राय थी वही आज अपने राजनैतिक आकाओं के इशारे पर मृत प्रेतात्मा के रूप में उभार पर हैं | क्या सच में सम्मान वापसी कर समाज में अपनी साहित्यकार के रूप में सहानुभूति प्राप्त करने की उनकी मंशा न्यायोचित कही जा सकती है ?
विगत कई दशकों से सम्मान, किसी न किसी जुगाड़ से सम्मानित होनेवाले या सत्ता की विरदावली गानेवाले भांटों को ही प्राप्त होने का सिलसिला सा चलता रहा है | जिसका जुगाड़ बैठ गया वही प्रतिष्ठित साहित्यकार की श्रेणी में समाविष्ट हो गया |
शासन-व्यवस्था तो आज भी वही अंग्रेजोंवाली ही है मगर, शासक वर्ग की विचाधारा जरुर बदली हुई है | जिसे अंगरेजी व्यवस्था के चाटुकारों को या फिर सत्ता विमुखों को रास नहीं आ रही और जो साहित्यकारों को मोहरा बनाकर अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने की जुगत में हैं |
वर्तमान में सम्मान और सम्मान राशि वापस करनेवाले तथाकथित साहित्यकारों के बैंक खातों की भी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए कि वापसी की राशि उनके खातों में कहां से आई या किसने डलवाई | इससे वाकई सच से पर्दा उठने की सम्भावना प्रबल हो जायगी |
व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में ही परखा जाय तो उत्तम और साहित्यकारों को भी समसामयिक निर्लोभ साहित्य की रचना करनी चाहिए साथ में साहित्यिक धर्म का अनुपालन भी |
— श्याम “स्नेही”