कविता

आधुनिकता

पता नहीं, हमें अभी और कहां ले जाएगी ये आधुनिकता
बेशर्मी के, और कौन से रंग दिखाएगी ये आधुनिकता।
धर्म को तो इसने व्यापार पहले ही बना डाला है।
संस्कृति को अभी और क्या क्या बनाएगी ये आधुनिकता॥

भक्ति गीत भी अब, रैप थीम में गानें लगें हैं लोग
दुर्गा उत्सव को भी, मौज मस्ती का साधन बनानें लगें हैं लोग।
आश्चर्यचकित विमूढ सा विस्मित खडा देख रहा हूं
श्रृषियों की परंम्पराओं का कैसे मजाक बनानें लगें हैं लोग॥

बदलाव जरूरी है, मगर ये बदलाव नही, मुल्यों का पतन है
किसी भी तरहा से, बस व्यापारियों का दौलत कमाने का जतन है।
साधना के लिये जहां त्याग देते थे, मुनि सांसारिक भोग को
क्या सचमुच सांस्कृतिक परचम लहराने वाला, वही ये वतन है॥

चंद सवाल पूछना चाहता हूं, देश के कर्ण धारों से
मत शर्मिन्दा करो, इस पावन धर्म को ऐसे व्यवहारों से।
बंदे मातरम कहने भर से, नही होगा सांस्कृतिक उद्धार
बचा सको तो बचा लो, अपनी संस्कृति को इन आधुनिकता के वारों से॥

सतीश बंसल

*सतीश बंसल

पिता का नाम : श्री श्री निवास बंसल जन्म स्थान : ग्राम- घिटौरा, जिला - बागपत (उत्तर प्रदेश) वर्तमान निवास : पंडितवाडी, देहरादून फोन : 09368463261 जन्म तिथि : 02-09-1968 : B.A 1990 CCS University Meerut (UP) लेखन : हिन्दी कविता एवं गीत प्रकाशित पुस्तकें : " गुनगुनांने लगीं खामोशियां" "चलो गुनगुनाएँ" , "कवि नही हूँ मैं", "संस्कार के दीप" एवं "रोशनी के लिए" विषय : सभी सामाजिक, राजनैतिक, सामयिक, बेटी बचाव, गौ हत्या, प्रकृति, पारिवारिक रिश्ते , आध्यात्मिक, देश भक्ति, वीर रस एवं प्रेम गीत.

One thought on “आधुनिकता

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सामयिक सार्थक लेखन
    उम्दा रचना

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