आधुनिकता
पता नहीं, हमें अभी और कहां ले जाएगी ये आधुनिकता
बेशर्मी के, और कौन से रंग दिखाएगी ये आधुनिकता।
धर्म को तो इसने व्यापार पहले ही बना डाला है।
संस्कृति को अभी और क्या क्या बनाएगी ये आधुनिकता॥
भक्ति गीत भी अब, रैप थीम में गानें लगें हैं लोग
दुर्गा उत्सव को भी, मौज मस्ती का साधन बनानें लगें हैं लोग।
आश्चर्यचकित विमूढ सा विस्मित खडा देख रहा हूं
श्रृषियों की परंम्पराओं का कैसे मजाक बनानें लगें हैं लोग॥
बदलाव जरूरी है, मगर ये बदलाव नही, मुल्यों का पतन है
किसी भी तरहा से, बस व्यापारियों का दौलत कमाने का जतन है।
साधना के लिये जहां त्याग देते थे, मुनि सांसारिक भोग को
क्या सचमुच सांस्कृतिक परचम लहराने वाला, वही ये वतन है॥
चंद सवाल पूछना चाहता हूं, देश के कर्ण धारों से
मत शर्मिन्दा करो, इस पावन धर्म को ऐसे व्यवहारों से।
बंदे मातरम कहने भर से, नही होगा सांस्कृतिक उद्धार
बचा सको तो बचा लो, अपनी संस्कृति को इन आधुनिकता के वारों से॥
सतीश बंसल
सामयिक सार्थक लेखन
उम्दा रचना