लेखक अंतत: खलनायक नहीं है!
हाल में कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या, अन्य लेखकों की हत्याओं और दादरी में एक शख्स की महज एक अफवाह के चलते हुई कथित हत्या के विरोध में जब सरकार ने कुछ नहीं किया तो साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों के एक वर्ग ने साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करते हुए अपना सांकेतिक विरोध सरकार के प्रति व्यक्त किया। इसकी पहल उदयप्रकाश ने की। फिर नयनतारा सह्रगल, अशोक वाजपेयी और अन्यय-अन्यान्य। और यह आंकड़ा अबतक 40 के पार जा पहुंचा है। कुछ ने तो राज्य सरकारों के पुरस्कार भी लौटाए हैं। पद्म पुरस्कार भी वापस किये जा रहे हैं। कहा जा सकता है कि यह लेखकों का सांकेतिक विरोध है। यद्यपि लेखकों की इस चिंता में सारा लेखक समाज शामिल है। पुरस्कृत- अपुरस्कृत सारा समाज। पर कुछ लेखक इस तरीके पर सहमत नहीं। नामवर जी ने इसे सुर्खियां बटोरने वाला अभियान कहा है तो ज्ञानेंद्रपति व गिरिराज किशोर और तमाम पुरस्कारप्राप्त लेखक भी इससे सहमत नहीं, विनोदकुमार शुक्ल भी नहीं। ये लेखक यह तो मानते हैं कि वे लेखकों की चिंता में शामिल हैं पर उनके इस कदम से सहमत नहीं। वे कहते हैं कि इससे अकादेमी कमजोर होगी जो कि स्वायत्तशासी है। ऐसी स्थिति में सरकार येन केन प्रकारेण इस स्वालत्तशासी संगठन को भी अपने प्रभाव में लेने का यत्न करेगी जैसा सुलूक उसका अन्य सरकारनियंत्रित संस्थानों के साथ है। यही कारण है कि पुरस्कार लौटाने की झड़ी लगते ही और लेखकों के बयान आते ही इस विवाद में राजनीतिज्ञ भी घुस पड़े हैं। लेखकों में ही दलबंदियां नजर आने लगी है। लेखकों की नसीहत देने वाले भी आगे आने लगे हैं कि ये सारे पुरस्कार वापस करने वाले लेखक कांग्रेसी या वामपंथी हैं। चैनल पर वाद विवाद संवाद चल रहा है। लेखकों की एक ऐसी छवि बनाई जा रही है जैसे कि पुरस्कार लौटाने वाले लेखक खलनायक हों। पर यह कहना ठीक नहीं है।
हम बेशक, लेखकों के इस तरीके पर असहमत हो सकते हैं और कह सकते हैं कि किसी भी तरह की हिंसा के लिए अकादेमी कहां तक उत्तरदायी है इसलिए पुरस्कार लौटाने का क्या अर्थ है। विरोध करना है तो सरकार से कीजिए, इसके और तरीके भी हो सकते है। पर आज लेखक को अगर यह लगता है कि प्रतिरोध का यह अकिंचन तरीका ही उनके पास बचा है तो इसे उनका न्यायिक निर्णय मानना चाहिए। पर अंतत: यहीं आत्यंतिक निर्णय या तरीका नहीं है। कुछ लेखकों का समूह इस बात से ही प्रसन्न है कि इससे और कुछ हो न हो, अध्यक्ष विश्वानाथ प्रसाद तिवारी की कुर्सी हिल जाए। लेखकों का यह कहना है कि अकादेमी अपने ही पुरस्कार विजेता लेखक की हत्या पर दिल्ली में एक शोक सभा आयोजित कर हत्यारों की निंदा नहीं कर सकी। हालांकि कलबुर्गी की हत्या के तुरंत बाद बंगलौर में लेखकों की एक बड़ी शोक सभा अकादेमी के उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कंबार की अध्यक्षता में हुई । लेखकों के प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमंत्री से मिल कर रोष भी जताया पर यही काफी नहीं था। लेखकों का कहना था कि दिल्लीं में भी एक शोकसभा होनी चाहिए थी जिसमें हिंसा के खिलाफ ऐसे तत्वों की कड़ी निंदा की जाती व सरकार से विरोध दर्ज किया जाता । कहा नही जा सकता कि यदि ऐसा हुआ भी होता तो यह सब नहीं होता।
क्योंंकि अंतत: इसे होना ही था। विरोध का जो भी तरीका लेखकों ने विवेकसम्मव समझा उसे अपनाया। जिस पुरस्कार के लिए लेखकों की इतनी लंबी कतारें हों, श्रेष्ठता की कसौटियों पर कस कर पुरस्कार दिए जाते हों, उसे लौटाना भी कोई हँसी खेल नहीं है। राशि लौटानी पड़े तो कितनी व्यथा होती है यह उनसे पूछिए। हर लेखक पूँजीपति नहीं है, नौकरशाह भी नहीं है। अनेक तो पेंशनयाफ्ता हैं। कई के पास जीविका का कोई पुख्ता संसाधन तक नहीं। पुरस्कृत लेखक के लड़के-बच्चेे ही इस बात का विरोध करने लगते हैं कि तुम्हेंव क्या पड़ी है पुरस्कार लौटाने की। कहां से लाओगे अचानक इतनी रकम। ऐसे समय भी लेखकों का पुरस्कार व राशि का लौटाना उनके किंचित त्याग का परिचायक तो है ही, चाहे यह जिस मंशा से किया गया हो।
पर यह जो छवि चैनल पर या लेखकों के समूह में निर्मित की जा रही है कि पुरस्कार लौटाने वाले लेखक खलनायक हैं, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। सरकारें निरंकुश होती हैं, वे इतने पर भी मानने वाली नहीं। सरकार के नुमाइंदों के बयान भी कोई लेखकीय प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं हैं। हिंसा और सांप्रदायिकता का बोलबाला इतना है और हर सरकार और दल के शासनकाल में झॉंकें तो ऐसी तमाम घटनाएं हैं जिन पर हमारा मस्तत शर्म से झुक जाता है। कोई सरकार दूध की धुली नहीं, न कांग्रेस न भाजपा न सपा। चैनलों के लिए यह भी उनके चौबीसों घंटे के अखंड यज्ञ में समिधा की तरह है। हर चीज़ उनके लिए एक प्रोडक्ट है। जिस लेखक को बमुश्किंल चैनलों पर बाइट मिलती हो वह अचानक पैनल डिस्केशन में बैठा है। चैनल वाले जिन्हें लेखकीय नैतिकता का क ख भी नहीं मालूम, जो सत्ता की पहल पर औने पौने में बिक जाते हों, वे लेखकों को ललकार रहे हैं। उनसे जिरह कर रहे हैं। मार्क्सवादी पूछ रहे हैं पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्सक क्या है?
कुंवर नारायण जी कहते रहे हैं कि राजनीति में लेखकों की व्याधियां आ जाएं तो वह कुछ कुछ शुद्ध हो उठती है पर लेखन में राजनीति की व्याधियां आ जाएं तो वह गंदला हो उठता है। हम कह सकते हैं कि जब सारी जगह राजनीति हो रही है, सारी चीजें राजनीति से ही संचालित हैं तो लेखक ही राजनीति से तटस्थ क्यों रहें। लेकिन यह जो लेखक-लेखक के बीच राजनीति हो रही है, कटाक्ष हो रहे हैं, खाईं निर्मित हो रही है, इसका अर्थ यह है कि राजनीति ने साहित्य में सेंध लगा दी है और ऐसा ही रहा तो यह राजनीति साहित्य अकादेमी को एक दिन ले डूबेगी और इसकी हालत भी अंतत: वही हो जाएगी जैसी सरकार नियंत्रित अन्य अकादेमियों की है।
— डॉ ओम निश्चल
राजनीति तो हो ही रही है . हर लेखक के अपने अपने विचार तो हो सकते हैं लेकिन एक बात पर तो सभी सहमत होंगे कि freedom of speech का भारत में बहुत नुक्सान हो रहा है . एक लेखक को इस लिए मार देना कि उस के विचार दूसरों से नहीं मिलते सरासर गलत बात है . इस पर हकूमत को आगे आना चाहिए था ,जो नहीं किया गिया . इसी लिए लेखकों ने अपना दुःख ज़ाहिर करने के लिए यह रोष प्रग्ताया है . जब यूनियन के मैम्बर अपने हक्क के लिए स्ट्राइक पर जाते हैं तो वोह यही तो करते हैं ,इस के इलावा और किया कर सकते हैं ?