ग़ज़ल
भूख का भूगोल अब पढ़ना कठिन है
डूबना आसान पर तरना कठिन है
मूर्ति की पूजा करो या जाप भी
दुखी के संग चार पग चलना कठिन है
चीखती है भुखमरी मुख फाड़ कर यूँ
खेद उसका चाह कर हरना कठिन है
धूप भी करती नहीं है गरम तन को
ठूँठ में एहसास अब भरना कठिन है
क्लेश होंगे दूर, ऐसी जंग छिड़नी चाहिए
उपयोग करलो वक्त का, वरना कठिन है
“कल्प” ऐसे समय को क्या नाम दे दूँ ?
मन साध के भी कर्म अब, करना कठिन है
— कल्पना मिश्रा बाजपेई