ग़ज़ल
तुम्हारे घर की तरह मेरा कोई घर होता
कोई तो यारब मेरा भी हमसफर होता ।
कभी तुम्हारी बेरुखी पे नहीं होता यकीं
पलट के देखा अगर तुमको एक नज़र होता।
कोई न कोई किनारा तो हाथ आ जाता
तुम्हारे हाथ से छूटा न हाथ गर होता।
आज ठहरा नहीं होता मैं समंदर की तरह
न ही भटकती हुई कोई मैं लहर होता।
तमाम उम्र न कटती विरह के साए में
न ही अंधेरों से लड़ता मैं इस कदर होता।
चाहता था कि तुम्हारी खुशी में हँसता मैं
और ग़म में तुम्हारे सर पे मेरा सर होता।
फिर नहीं गिनता यों इंतजार की घड़ियां
न ही यादो के बियाबान में सफर होता।
एक तमन्ना थी महज हम-करीब होने की
भले तुम्हारे बगीचे का गुलमोहर होता।
— अोम निश्चल