“आँखे” (गजल)
नील मोती सिप प्यारी आँख से झरना बहा
कब रुके नैनों की सरिता भावना बहती जहां ||
हंसती हुयी ऑंखें विकल होती हैं अश्रुधारसे
नज़रों का गिरना देखने रुकता नहीं कोई यहां ||
जब उठी ऑंखें मुहब्बत प्यार के दहलीज पर
घायल परिंदा हों गया न आस्मा जिसका रहा ||
प्रेम का परिहास निज आँख को भाता नहीं
आँखें समझती है दीवानी प्रेम का दरिया कहां ||
शीतल हवा झरना झरे सुंदर समां आकाश में
चाँद की प्रतिचांदनी बिखरी हुयी सारे जहां ||
झूठी नहीं होती हैं आँखे सत्य का दर्पन लिए
बेवजह काजल लगा गढते रहें हम कह कहा ||
महातम मिश्र
ग़ज़ल अच्छी लगी
सादर धन्यवाद आदरणीय भमरा जी