कविता

मेरा नीलाभ आकाश

टूट कर जब गगन से गिरे थे सितारे
बाँध आँचल में मैने संभाले ढेर सारे
गिरे न एक भी धरा पर न रौंदा जाये
न जग हॅसे इन पर न कोई जान पाये
रख दिये चुपचाप थमने तक तूफान के
सहेज कर तुलसी के चौरे के आस-पास
कि देहरी के दीप की मृदु मद्धिम किरण
दीप्त रखे इनको अपने उज्ज्वल नेह से
अंधेरी रातों में स्याह सन्नाटे में अकेले
एक एक कर टांक आयी चन्द्रमा के पास
पा गये तारे फिर अपना धाम अपनी आब
और सज गया फिर मेरा नीलाभ आकाश

रचना शर्मा