दुनिया की रीत अपनों की मित
नहीं जानता था कि यहाँ पर इतना सब कुछ होगा।
फर्ज को एहसान बताकर ऐसा हृदय विदारक होगा।
मेरे मन का आस मुझी पर बनकर लौट पड़ेगा।
मेरी ही उम्मीद तुरन्त मुझपर पश्चाताप करेगा।
तेरे कुटिलता के आगे मैं कष्ट भोग रहा हूँ।
तेरे करनी से आज स्वयं को मध्य में लटका पा रहा हूँ।
खली थी कभी नहीं मूझको तेरी सभी चतुराई।
लेकिन जब तुम अन्त किया तो बरदाश्त नहीं हो पाईं।
तिनक सा विवश डुबता उगता बहता सोचता हूँ।
अन्दर छिपे सच्चाई को मैं जान नही पाता हूं।
सारी बातें जान-बूझ-कर भी मैं बोल नहीं पाता।
निष्कर्ष पर जाकर समझ बैठा मैं हारा तुम जीता।
तेरा यहा पर ठौर ठिकाना, तुम कुछ भी कर सकता है।
भले ही इसके लिए तुम-भ्रष्ट- पथ पर चल सकता है।
अपने स्वार्थ को सिद्ध-पूर्ण के नीचता पर आ सकता है।
मिट्टी-पलीद हो जाये भली लेकिन पिछे हट नही सकता।
हाँ तुम भातृ-प्रेम मुझ पर बरसाया था, छल करने को।
मिठी-मिठी बातों में हर्षाया था मुझे हरने को।
तुने तो मुझपर किचड़ छिड़ककर इल्जाम लगा दिया।
मुझको तुम अपने से घृड़ा करने के लायक बना दिया।
मेरा इसमे क्या दोष है ? मै अपना फर्ज निभाया ।
सत्य का पाठ पूर्वजो के आदर्श ने मुझे सिखलाया।
अन्तहिन,त्रुटिहिन ,सत्यहिन,सब साबित हो गया तुम।
फिर भी अपने आप को पहचान नहीं कर पाया तुम।
चार लोगों का संग का मिला अपने को महान समझता।
लोगों को झूठा भरमाकर लम्बी-लम्बी बातें फेकता।
जब आता है मोरचा तो खुद पिछे हट जाता।
अपनों को बचाने के लिए दूसरों को खड़ा कर जाता।
नीच मनुज की बुद्धि, कभी उच नही हो पाती।
संयोग वश हो जाती तो अपना छाव जरूर छोड़ जाती।
जब उसका गुजर- बसर किसी पर नही चल पाता।
तब जाकर नीचता का प्रमाण देकर सबको अझुराता।
यही है यहाँ पर अधिकतर लोगों की रीति।
पेट में रखते खन्जर, बाहर में दिखाते प्रित।
जरूरत सिद्ध करने के लिए बताते चलते अपना मित।
अगर नहीं होती पुरी जरूरत गाते शिकायत की गीत।
बहुत अच्छी लगी ,आप कमाल का लिखते हैं .
आभार श्रीमान जी।
आभार श्रीमान जी।
बेहतरीन रचना रमेश जी
सादर धन्यवाद श्रीमान जी।