ग़ज़ल
नहीं कुछ और इसमें मैंने खूने-दिल मिलाया है
तब कहीं जा के अपनी शायरी में रंग आया है
आँसू की स्याही को फैला गम के कागज़ पर
जुदाई की धीमी आँच पर उसको पकाया है
रिश्ता हंसके मिलने का कई लोगों से है लेकिन
याद तुम ही मुझे आए जब भी जी घबराया है
मुझे छूती है हल्के से गुलाबों की लिये ख़ुशबू
हवा के कान में जाने क्या तुमने गुनगुनाया है
भरम रखा है उल्फत का हमने इस तरह से कुछ
तेरी हर चोट पर तेरा दीवाना मुस्कुराया है
बदलते वक्त के संग अब यहां रिश्ते बदलते हैं
सितारे जब हों गर्दिश में तो अपना भी पराया है
— भरत मल्होत्रा।
गज़ब की ग़ज़ल .