संस्मरण

मेरी कहानी 75

उस समय की कुछ मजेदार बातें मैं अगर नहीं लिखूंगा तो यह कहानी पूर्ण नहीं होगी और आज के बच्चे, अगर कोई उन को बताएं तो हंस हंस कर लोट पोट हो जायेंगे। जिस घर में हम रहते थे यह 19 mostyn street था और इस के पास वाले घर 17 mostyn street में इस घर का मालक दर्शन और उस का मामा गुरदेव सिंह रहते थे यानी दर्शन के दो घर होते थे, एक में खुद, उस का मामा गुरदेव सिंह और दर्शन की पत्नी जो अभी अभी दो छोटे छोटे बच्चों के साथ इंडिया से आई थी रहते थे और दुसरे में हम सभी रहते थे. उस समय के स्टैण्डर्ड से हम अच्छी तरह रहते थे किओंकि दो बैड रूम के घर में हम सिर्फ सात लोग रहते थे.एक में मैं और डैडी जी, दुसरे में जसवंत और गियानी जी और तीसरे (जो फ्रंट रूम था उस को भी बैड रूम के लिए ही इस्तेमाल करते थे ) में वोह जमेकन लल, उस की वाइफ जीन और उन का एक पांच साल का बेटा दानी रहते थे. हम सभी दो दो पाऊंड हफ्ते का कमरे का किराया देते थे जिस में बिजली और गैस का बिल भी शामल होता था यानी हम सिर्फ दो पाऊंड कमरे का किराया देते थे, और हमें कुछ नहीं देना पड़ता था.

मेरे डैडी जी पहले 30 mostyn street में रहते थे जो हमारे एक गाँव वाले सिंह (नाम नहीं लिखूंगा) का मकान होता था, जिस में बहुत लोग रहते थे. डैडी जी इस में मजबूरी वश ही रह रहे थे किओंकि मकान मालक की आदतें अच्छी नहीं थी और बात बात पे बिजली और गैस बिल की बातें करता रहता था कि तुम बिजली और गैस बहुत जलाते हो. कभी कोई बल्व ऑफ करना भूल जाए तो बहुत बोलता था. खुद उस की आदत ऐसी थी कि जब भी मौका मिले दुसरे लोगों के पतीलों से सब्जी दाल चुरा लेता था. उस वक्त गैस को माचस की तीली से जलाया जाता था और यह माचस की डिबिया हर एक को अपनी अपनी वारी के हिसाब से लानी पड़ती थी. इस मकान मालक की आदत इतनी कमीनी थी कि यह हर एक की डिबिया से एक दो तीली कभी कभी निकालता रहता और एक खाली डिबिया जो वोह छुपा के रखता था को भरता रहता और जब उस की वारी आती तो वोह डिबिया ले आता और कहता, “लो भई यह मेरी डिबिया है”. किओंकि मेरे डैडी जी ने अफ्रीका में बहुत अच्छी जिंदगी बताई थी, उन को यह बातें बहुत बुरी लगती थीं.

मेरे डैडी जी ने बताया कि वोह स्ट्रौब्री जाम के बहुत शौक़ीन होते थे और इस से सैंडविच बनाया करते थे । वोह अपना सारा सामान एक अलमारी में रखते थे। एक दिन जब वोह सैंडविच बनाने लगे तो देखा कि स्ट्रौब्री जाम का जार आधा हुआ हुआ था। उन्होंने सोचा कि उन्होंने तो सिर्फ एक दफा ही सैंडविच बनाया था, फिर यह आधा कैसे हो गिया! डैडी जी बहुत हुशिआर होते थे। उन्होंने जाम खाना ही छोड़ दिया और देखा कि दिनबदिन जाम का जार नीचे की ओर आ रहा था, जब बिलकुल नीचे आ गिया तो और निकालना बंद हो गिया। डैडी जी ने समझ लिया कि इस अलमारी की दो चाबीआं होंगी और दुसरी चाबी उस मकान मालक के पास ही होगी जो जाम खाता रहता था और जाम को जूठा करता रहता । इस बात पर डैडी जी बहुत हंसा करते थे।

उन्होंने एक बात और बताई कि एक दिन वोह मकान मालक किचन में रोटीआं पका रहा था, तभी एक ज्मेकन जो कभी इस मकान में रहा करता था, पूछने आया कि उस का कोई लैटर हो तो उस को दे दिया जाए। मकान मालक सिंह को पता नहीं किया समझ आई कि उस ने रोटीआं पकाने वाला वेलन उस के सर पर मार दिया। उस के सर से खून बहने लगा। वोह जमेका अपना हाथ सर पर रख के वापिस चले गिया। डैडी जी ने जब देखा तो उन को पता चल गिया कि अब झगड़ा बड़ जाएगा क्योंकि वोह अफ्रीका में रहते हुए इन काले लोगों को अच्छी तरह जानते थे कि वोह अब इकठे हो कर आएंगे और जम कर लड़ाई होगी। डैडी जी उसी वक्त पुलिस स्टेशन की ओर चले गए जो नज़दीक ही डंस्टल रोड पर होता था। वोह काला अपने साथ दो आदमी ले कर आ गिया और पहले एक आदमी हरबंस सिंह लुहार जो हमारे गाँव का ही था और दरवाज़े के नज़दीक ही खड़ा था उसके मुंह पर मुक्के मार दिए और हरबंस के माथे से खून बहने लगा। फिर उन्होंने एक और आदमी को पकड़ कर पीटना शुरू कर दिया। जल्दी ही डैडी जी और दो पुलिस मैन आ गए और उन्होंने आते ही लड़ाई बंद करवा दी। मकान मालक जिस ने वेलन मारा था वोह बच गिया लेकिन निर्दोष पीटे गए। वोह ज़माना अच्छा था और पुलिस ने किसी को भी चार्ज नहीं किया क्योंकि वोह जानते थे कि यह लोग परदेसी थे और उनके काम का नुक्सान हो जाएगा।

फिर एक दिन मेरे डैडी जी की मुलाकात गियानी जी से हो गई। गियानी जी कहने लगे, “साधू सिंह जी, यह घर आप के रहने के लायक नहीं है, आप हमारे साथ आ कर रहें और आज ही एक कमरा खाली हुआ है ” उसी दिन डैडी जी ने गियानी जी के साथ इस घर में रहना शुरू कर दिया और आज तक इस गियानी जी के खानदान से हम जुड़े हुए हैं। हम चारों बहुत खुश थे लेकिन वोह काली ज्मेकन औरत बहुत बददिमाग थी। उस के सर पर जैसे भूत सवार हो जाता था, बात बात पे बोलती रहती थी, पता नहीं उस को क्या तकलीफ होती थी । एक तो उन लोगों की अंग्रेजी भी इतनी अजीब थी कि ऐसा प्रोनन्सीएशन हम ने कभी सुना ही नहीं था, अंग्रेज़ों की तो हम कुछ कुछ समझने लग गए थे लेकिन इन लोगों को समझना असंभव था और ख़ास कर इन के गाने तो ऐसे थे जो हम को बहुत वर्षों बाद पता चला कि उन को रैगे बोलते हैं और उन के गानों की ट्यून हमेशा गिटार पे एक जैसी धुक्क चुक्क, धुक्क चुक्क ही होती रहती थी। रविवार को वोह अपने कमरे में रेडिओग्राम हाई वौलीओम पर लगाते और डांस करते ख़ास कर जब हम अपने अपने कमरों में सोते तो उन के रेडिओग्राम की आवाज़ हमें बहुत दुखी करती।

कभी कभी जीन के भाई भी आ जाते और कुछ उन के दोस्त भी आ जाते और घर में इतना शोर होता कि हम तंग आ जाते लेकिन कुछ कह न सकते। फिर एक दिन हमें पता चला कि वोह लोग यह घर छोड़ कर जा रहे हैं तो हम बहुत खुश हुए। जब वोह घर छोड़ कर चले गए तो उन का कमरा एक आदमी जगदीश लाल जोशी ने ले लिया। जगदीश लाल जोशी हदियाबाद गाँव का रहने वाला था जो फगवाडे़ रामगढ़िया कालज के बिलकुल नज़दीक है। जगदीश ने अकेले ने ही कमरा लिया था, इस लिए हम पांच ही घर में रह गए जो हमारे लिए बहुत अच्छा साबत हुआ। जगदीश लाल के दो भाई मेरे साथ इंडिया में रामगढ़िया स्कूल में पड़ते थे लेकिन अभी इंडिया से आये नहीं थे। शनिवार और रविवार को हमारे घर गियानी जी को मिलने बहुत लोग आया करते थे जो ज़्यादा तर गियानी जी के गाँव के ही होते थे। गियानी जी उन के फ़ार्म बगैरा भरते रहते, और जब कोई ना आता तो अपने घर को चिठ्ठी लिखनी शुरू कर देते। जब गियानी जी घर को खत लिखते तो हाशिये पर भी लिखते रहते, यहां तक कि खत का हर एक हिस्सा भर देते। खत वोह बहुत ही प्रीत से लिखते थे, धीरे धीरे और बहुत अच्छी हाथ लिखत से।

ब्रुक हाऊस में मेरा काम अब अच्छा हो गिया था और चार पांच सौ पाउंड जमा भी कर लिए थे और मुझे कुछ हौसला हो गिया था। मैं और जसवंत अक्सर हँसते रहते थे कि हम इंडिया को शादी कराने तब जाएंगे जब हमारे पास एक हज़ार पाउंड जमा हो जाएगा। उस समय हज़ार पाउंड बहुत होता था। एक बात मुझे हमेशा खटकती रहती थी कि इंडियन गाने बहुत मुश्किल से मिलते थे और मुझे गानों का शौक बहुत होता था। कुछ लोग थे जो जब इंडिया जाते थे तो इंडिया को इलैक्ट्रिक की टेप रिकार्डर ले जाते थे और वहां जालंधर, विभद भारती और रेडिओ सीलोन से गाने रिकार्ड कर के ले आते थे. जब इन लोगों के घर मैं गाने सुनता था तो मुझे बहुत अच्छे लगते थे। एक दिन मैं और डैडी जी टाऊन को गए, एक इलैक्ट्रीकल चीज़ों की दूकान में हम ने एक टेप रिकार्डर देखी जो हमें बहुत अच्छी लगी, इस का नाम था GRUNDIG TK 23. इस के ऊपर दो बड़ी बड़ी रीलें थीं जो बहुत बड़ी थीं और यह फोर ट्रैक थी। फोर ट्रैक होने के कारण इस में सौ के करीब गाने रिकार्ड हो जाते थे। हम ने उसी वक्त यह टेप रिकार्डर किश्तों पर ले ली।

अब मैं गाने ढूंढने लगा, कभी किसी के घर, कभी किसी के घर जाता। एक दिन मुझे एक दोस्त मिल गिया जिस के पास टेप रिकार्डर और कई सौ गाने थे। उस की टेप रिकार्डर और उस से सभी गाने मैं घर ले आया। छुटी का दिन था और दोस्त की टेप रिकार्डर से अपनी टेप रिकार्डर पर गाने रिकार्ड करने लगा। सुबह से शाम हो गई। मुझे लालच था कि जितने भी हो सकें गाने रिकार्ड कर लूँ। शाम को मकान मालक दर्शन आ गिया और आते ही बोलने लगा कि सुबह से शाम तक कितनी बिजली खर्च हो गई थी। फिर वोह गैस के बारे में भी बोलने लगा कि उस का बिल बहुत आ रहा था। मेरा सारा मज़ा किरकिरा हो गिया और जब डैडी जी आये तो मैंने उन से कहा कि हम इस घर में नहीं रहेंगे और अपना घर खरीदेंगे। गियानी जी ने भी इस बात का बहुत बुरा मनाया और डैडी जी भी अपसैट हो गए।

मैंने घर देखना शुरू कर दिया। एक दो देखे भी लेकिन उन की रिपेअर बहुत होने वाली थी। एक दिन जगदीश का एक भाई हरीबंस मुझे रास्ते में मिला (जगदीश सात भाई थे)। मैंने उस को कोई घर देखने को बोला। कुछ दिनों बाद हरीबंस हमारे घर आया और बोला कि जिस रोड पर वोह रहता है वहां एक अँगरेज़ बज़ुर्ग मिआं बीवी अपना घर बेच रहे हैं और उन के घर के सामने for sale का बोर्ड लगा हुआ है । हम दोनों उसी वक्त घर देखने चल पड़े। जब हम ने गोरा गोरी का घर देखा तो देखते ही पसंद आ गिया। यह घर दो बैड रूम का था और हमारे लिए काफी था। घर की कीमत थी 1250 पाउंड। मैंने 1200 सौ की ऑफर दी लेकिन वोह 1250 पाउंड पर ही अड़े हुए थे। हरीबंस पंजाबी में मुझ को बोला, ” गुरमेल ! तुझे अब जरुरत है, घर भी अच्छा है, इस लिए ले ले”. हमारा सौदा हो गिया।

घर आ कर मैंने डैडी जी को बताया और वोह खुश हो गए। कुछ पैसे कम थे, सौ पाउंड डैडी जी ने मुझे दे दिए और दूसरे दिन बाकी पैसे मैंने बैंक से लिए और जा पौहंचा एस्टेट एजेंट के दफ्तर में। उस को बताया कि मकान मालक से मेरा सौदा हो गिया था। 650 पाउंड उस को मैंने कैश दे दिए और 600 पाऊंड के लोन के लिए ब्रिटैनीआ बिल्डिंग सोसाइटी को अप्लाई कर दिया। मैंने अपना वकील वुले ऐंड कम्पनी कर लिया था जो मेरे लिए काम करने लगे थे। कुछ ही दिनों बाद मुझे बिल्डिंग सोसाइटी से खत आ गिया कि मेरा लोन एप्रूव हो गिया था जो मैंने 15 पाउंड महीने की किश्त के हिसाब से दस सालों में वापस करना था। तकरीबन 6 हफ्ते बाद मुझे मेरे वकील का फिर खत आया कि मैं घर की चाबी ले लूँ। दूसरे दिन मैं वकील के दफ्तर में पौहंचा और उस से चाबी ले कर घर आ गिया।

डैडी जी बहुत खुश हुए और मेरी हिम्मत की दाद दी। उसी वक्त हम अपने घर की ओर चल पड़े। यह घर 34 CARTER ROAD था। डैडी जी को मैंने चाबी पकड़ा दी, उन्होंने दरवाज़ा खोला और हम भीतर चले गए। किचन देख कर डैडी जी खुश हो गए। लगता था, गोरे ने घर बेचने से पहले ही डेकोरेट किया होगा। आम घरों की तरह टॉयलेट और कोल रूम बाहर ही थे और छोटा सा गार्डन था। सारा घर अच्छी तरह देख कर हम वापस आ गए और गियानी जी और जसवंत को बताया कि कुछ फर्नीचर खरीद कर हम चले जाएंगे। गियानी जी उदास हो गए और डैडी जी को बोले, “साधू जी ! हम भी आप के साथ ही जाएंगे, आप के बगैर हमारा मन नहीं लगेगा “. डैडी जी बोले, “गियानी जी यह तो बहुत अच्छा होगा, अगर आप भी हमारे साथ चलो तो “.

उन दिनों हमारे लोग नया फर्नीचर बहुत कम खरीदते थे बल्कि सभी पुराना ही खरीदते थे । टाऊन में औक्शन होती थी और बोली दे कर खरीद लेते थे। कुछ ही दिनों में मैंने कुर्सियां मेज़ और अल्मारीआं बगैरा खरीद लिए लेकिन बैड नए ही खरीदे। यह फर्नीचर बेशक पुराना था लेकिन बहुत अच्छी हालत में था। धीरे धीरे घर भरने लगा। किचन के लिए नए बर्तन और फ्लोर साफ़ करने के लिए ब्रूम और मौप बगैरा सब ले लिए। फ्लोर पर नई लाइनो विछा दी गई। यह काम करके हम ने बिजली और गैस का कुनैक्षन लिया। फिर एक दिन हम ने वैन हायर की और सारा सामान अपने घर में ले आये। गियानी जी ने पहले अरदास की और बैठ कर बातें करने लगे। गियानी जी मेरी हिम्मत की दाद और मुझे शाबाशी देने लगे कि कितनी जल्दी सारा काम कर लिया था ।

अब हमारा एक और जरूरी काम था और वोह था दाल सब्ज़ियाँ आटा दूध बगैरा लाना। हम चारों राशन खरीदने चल पड़े। उस वक्त लैस्टर स्ट्रीट में जो नज़दीक ही थी एक सिंह ने ग्रोसरी शॉप खोल ली थी। वहां से हम ने सारा राशन खरीदा और घर आ गए। यह दिन हमारा ख़ुशी का दिन था। खाना पका के मैं डैडी जी और जसवंत तीनों पब में चले गए जो बहुत ही नज़दीक था. गियानी जी ड्रिंक नहीं करते थे इस लिए वोह घर पर ही रहे, इस पब्ब का नाम था JUNCTION INN. जब हम प्ब्ब में गए तो सभी गोरे हमारी तरफ देखने लगे। वोह वक्त ऐसा था कि बहुत प्ब्बों में हमें सर्व भी नहीं किया जाता था अगर करते भी तो वित्करा करने के उन के अपने ढंग होते थे। मुझे याद है एक दफा मैं और बहादर एक प्ब्ब में गए थे जो जंक्शन इन् के ही नज़दीक था। गोरे ने हमें ग्लास तो दे दिए लेकिन जब हम बियर पी रहे थे तो बहादर मुझ को बोला, ” गुरमेल ! जरा धियान से देख, सभी लोगों के पास प्लेन गलासज़ है, लेकिन हम को उन्होंने हैंडल वाले ग्लास दिए हैं, इस लिए हम यहाँ से चलते हैं “. यह भी हमको नीचा दिखाने का एक ढंग होता था।

डैडी जी मैं और जसवंत लोगों को देख एक एक ग्लास पी कर पब्ब से बाहर आ गए और ऐश ट्री की और चल पड़े जो दस मिनट की दूरी पर ही था। ऐश ट्री हमारे लिए अपने घर जैसा ही होता था। जसवंत और डैडी जी की दोस्ती में उम्र का कोई बंधन नहीं था, जसवंत अक्सर डैडी जी को “किद्दां बहुत शैताना!” कह कर बुलाया करता था, इस में उनका एक अपनापन छुपा होता था। जब हम जंक्शन इन से निकलने लगे थे तो पब्ब वाले की पत्नी मोटी बुडिया को देखकर मैंने उसे “साली ट्रक सी” बोला था और हम तीनों हंस पड़े थे। गोरी बुड़िआ हमारी ओर देख रही थी, वोह समझ गई थी कि हमने उस के बारे में ही बोला होगा और वोह हमारी तरफ घूर घूर कर देख रही थी। अब हम ऐश ट्री में बैठे बियर पी रहे थे और जसवंत डैडी को बोला, “बहुत शैताना, गुरमेल की ट्रक वाली बात पे मुझे इतनी हंसी आई कि मेरे हाथ से ग्लास छूटने लगा था”. हमारे साथ जो वितकरा किया जाता था, उस का खात्मा बहुत सालों बाद हुआ जब discrimination act पास हुआ था और इस के बाद हम कहीं भी जा सकते थे और कोई गोरा हमारे साथ वितकरा करता तो उस के खिलाफ केस कर सकते थे। अब तो वोह बात रही ही नहीं और यह भी एक इतहास का ही हिस्सा है। बहुत सालों बाद यह सारे पब हमारे लोगों ने ही खरीद लिए थे और अब गोरे हमारे पब्बों में जाने लगे थे, उलटी गिनती शुरू हो गई थी।

काफी देर हम तीनों बीयर पीते रहे और घर आ गए, रोटी खाई और बातें करने लगे। दर्शन के घर से निकल कर हमें लगा जैसे हम को एक सुख का सांस आ रहा हो। अब हम सब घर के सदस्य की तरह रहने लगे थे, एक नया अधिआए शुरू हो गिया था, सारी टैंशन खत्म हो गई थी, जैसे हम जेल से निकल कर खुली हवा में आ गए हों। हमारा आपस में पियार इतना था कि घर तो मेरा था लेकिन लोग समझते कि यह घर गियानी जी का था।

चलता…

3 thoughts on “मेरी कहानी 75

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, प्रणाम ! मैं आपके तथा अन्य के लेखों आदि पर कई दिनों से टिप्पणी नहीं कर पाया इसके लिए क्षमा करें. व्यस्तता के कारण ऐसा हुआ था. अब किया करूँगा.
    आपने कम समय में ही रहने के लिए घर खरीद लिया, यह आपकी मेहनत और कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार था. आपको बहुत बहुत साधुवाद.
    आपकी हर क़िस्त बहुत रोचक होती है और वेबसाइट पर लगाने से पहले मैं पूरी पढता हूँ.

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त बहुत रोचक एवं उपलब्धियों से भरी हुई है। अपना घर खरीदने की घटना जीवन का एक बहुत बड़ा स्वप्न होता है। किसी किसी का ही पूरा होता है। आप इस में भाग्यशाली सिद्ध हुवे। आपको देर से बधाई स्वीकार हो। लगता है कि बाद में आपने नया बड़ा घर ख़रीदा होगा या बनवाया होगा। अन्य सभी घटनाएँ पढ़कर भी प्रसन्नता हुई। आपका हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी ,धन्यवाद .वोह दिन कुछ और थे लेकिन हम जवान थे और अभी शादी भी नहीं हुई थी .इस घर में जिंदगी के बहुत अछे दिन बीते थे . बहुत देर बाद यह घर बेच कर और ले लिया था और सभी सदस्य अपने अपने रास्ते पर चले गए थे लेकिन अभी तक हम जब भी मिलते हैं उसी मुहबत से मिलते हैं .

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