ग़ज़ल
उलझाती ये बेचैनियां जाने क्या अंजाम लिखेंगी
टूटी उम्मीदें भला कैसे मुकम्मल पैगाम लिखेंगी
ख्वाबों में भी परदापोशी ही किया करते है पसंद
कैसे हथेलियां सुर्ख मेंहदी से उनका नाम लिखेंगी
रोशनी मे दीदार गंवारा नहीं उन नम निगाहों को
आफताबी किरणें भला कैसे धुंधली शाम लिखेंगी
इतना अदम भर डाला है जुदाई ने दिल के अंदर
उखङी धङकने भला कैसे बिना रूके आराम लिखेंगी
निकले ना इब्तिसाम तहजीबों से भी बचा करते है
खुश्कियां भला कैसे भीगी दास्तां तमाम लिखेंगी
मिलके भी मिलने की ख्वाहिशें आदाब कहती नहीं
ऐसी मुलाकातें भला कैसे अलविदा-ए-सलाम लिखेंगी
— मीनू झा
बहुत सुंदर
बढ़िया ग़ज़ल !
बहुत बढ़िया
वाह