ग़ज़ल
दिल का दर्द लफ्ज़ों में बताया क्यों नहीं जाता
नहीं है पास जो उसको भुलाया क्यों नहीं जाता
रोकते-रोकते भी अश्क बह जाते हैं आँखों से
ये जज़्बात का दरिया छुपाया क्यों नहीं जाता
तेरे पहलू में बैठे-बैठे जो इक गीत लिखा था
आज तनहाई में वो गुनगुनाया क्यों नहीं जाता
तेरे आने की जो उम्मीद ही बाकी नहीं है अब
तो चौखट का दिया हमसे बुझाया क्यों नहीं जाता
अगर मैं झूठ कहता हूँ तो साबित क्यों नहीं करते
अगर सच है तुमसे सर हिलाया क्यों नहीं जाता
कहीं मतलब के रिश्ते हैं कहीं रिश्तों के मतलब हैं
बिना मतलब कोई रिश्ता निभाया क्यों नहीं जाता
सजा-ए-मौत दी हाकिम ने बस इस बात पर मुझको
कि उसके दर पे मुझसे सर झुकाया क्यों नहीं जाता
— भरत मल्होत्रा