गीत- पेरिस पर आतंकवादी हमला
(पेरिस पर हुए आतंकवादी हमले के सन्दर्भ में मेरी कविता)
माना कोई धर्म नहीं है आतंकी उन्मादी का,
माना कोई धर्म नहीं है उस कातिल बगदादी का,
माना कभी इजाज़त देता दहशत की इस्लाम नहीं
माना खून खराबे का इस दीन धर्म में काम नहीं
तो फिर उन काले झंडों पर किस मज़हब के श्लोक लिखे?
किस मज़हब का नाम लिखा है? किस मज़हब के लोग दिखे?
किस मज़हब के नारे, किस मज़हब का पर्दा डाला है,
कोई मुझे बताये आखिर कैसा गड़बड़झाला है?
दिल को बहुत मनाया लेकिन दिल को झटका ग्रेट मिला,
आईएस का अर्थ पढ़ा तो इस्लामिक स्टेट मिला,
अब सवाल है ये “इस्लामिक” शब्द कहाँ से आया है
क्या लोगों ने एक नाम का दूजा धर्म बनाया है?
गर दूजा है तो फिर किस मुद्दे पर आखिर डोले हैं,
गला रेतने से पहले क्यों अल्ला अकबर बोले हैं?
अल्ला हो अकबर से बोलो किस मज़हब का नाता है?
किस मज़हब में टोपी दाढ़ी, ज़िक्रे आयत आता है?
यानी ये सब आतंकी इस्लाम धर्म के दुश्मन है,
यानी ये कुरान में लिक्खे, ज्ञान मर्म के दुश्मन हैं,
यानी ये कुछ लाख मोमिनों के बन बैठे अब्बा हैं,
यानी ये इस्लाम जगत पर बदनामी का धब्बा हैं,
गर ये ही सच्चाई है तो पर्दा कौन हटाएगा,
दाग लगा जो हर मुस्लिम पर उसको कौन मिटाएगा,
सच्ची मुसलमान कौमों को, ये विचार करना होगा,
निकल घरों से बाहर सबको अब देना धरना होगा,
सोच बदलनी होगी, नहीं जरुरत किसी बहाने की,
पेशावर पर रोने की पर पेरिस पर मुस्काने की,
दहशत दहशत है दहशत में फर्क नहीं बतलाओ जी,
अमरीकी रूसी फितरत का दोष नहीं गिनवाओ जी,
हमने बोलो कब तानी है तोप सीरिया वालों पर,
फिर क्यों धमकी के चाटें है हिन्दुस्तां के गालों पर,
मुसलमान का रोना रोकर आईएस गुर्राया है,
बार बार इस भारत को भी क्यों बोलो धमकाया है?
ये सारी है सोच तबाही मज़हब की नौटंकी है,
मासूमों को जो मारे, वो बस केवल आतंकी है,
अरे मोमिनों धूल चटा दो मिलकर दहशतगर्दी को,
छोड़ सको तो छोडो दाऊद मेमन की हमदर्दी को,
दुनिया में हो प्यार मुहब्बत, नफरत का ना काम रहे,
बगदादी की सोच मिटे, केवल सच्चा इस्लाम रहे
——-कवि गौरव चौहान