मेरी कहानी 81
जब मैंने काम शुरू किया था, उस समय बहुत से इंडियन पाकिस्तानी और जमेकन लोग बस्सों पे काम करने के लिए आ रहे थे लेकिन अभी भी गोरे लोग ज़िआदा ही थे और यूनियन में भी सारे गोरे लोग ही थे. यूनियन का चेअर मैंन होता था samy clark और सैक्टरी होता था harry willium , इन दोनों ने हमारी कभी भी मदद नहीं की, दिल से यह हमारे लोगों के खिलाफ थे और हम को नफरत करते थे । गोरे लोगों में भी ज़िआदा आएरश, पोलिश और कुछ इटैलियन थे, लेकिन हम इन को भी अँगरेज़ ही समझते थे ,इन के बारे में हमें बहुत देर बाद पता चला था . इन सभी लोगों का जोर होता था किओंकि यह सभी इकठे होते थे और हमको ऐसे समझते थे जैसे हम बहुत गरीब देश के अनपढ़ और असभ्य लोग हों और शाएद इस का कारण यह था कि हम बहुत बहुत लोग एक ही घर में रहते थे और सफाई का हमें कोई ख़ास खियाल नहीं होता था, ना ही हम अपने गार्डन का कोई खियाल रखते थे ,शायद इंग्लैण्ड के तौर तरीकों से हम अच्छी तरह वाक़फ़ ही नहीं थे ,सब का यही विचार होता था कि एक दिन हम ने अपने देश को चले जाना है .
दूसरी बात, हमारी मातृभाषा इंग्लिश न होने के कारण हम गोरे लोगों की तरह फ्लूऐंट इंग्लिश नहीं बोल सकते थे किओंकि वोह तो शाएद ग्रैमर भी जानते नहीं थे और लफ़्ज़ों को ऐसा बोलते थे कि हमने कभी पड़ा सुना ही नहीं था और दुसरे हमें काम छूट जाने का डर लगा रहता था और तीसरे अगर हम झगडा करते और काम से छुटी हो जाती तो हमारे लोग ही हम पर हँसते रहते कि जरुर हमारा ही कोई कसूर होगा। वोह वक्त ही ऐसा था कि आम अँगरेज़ लोग हम को अच्छा नहीं समझते थे किओंकि हम परदेसी उन की नौकरीआं छीन रहे थे। जब भी कोई जहाज़ इंडियन लोगों का इंडिया से आता तो शाम के पेपर express & star के फ्रंट पेज पर खबर होती थी और गोरे गुस्से में हमें सुनाकर बोलते more indians coming !और हम कोई जवाब ना दे सकते। जमेकन लोग हमसे कुछ अच्छी हालत में थे किओंकि एक तो उन की ज़ुबान ही इंग्लिश थी और दुसरे यह सुभाव से ही एक लडाकी कौम है और जब यह लड़ते थे तो काम की परवाह भी नहीं करते थे ,इस लिए अँगरेज़ इन से डरते थे। जैसे जैसे बाहर से लोग आ रहे थे ,अंग्रेजों के दिलों में हमारे खिलाफ नफरत बड रही थी।
आज तो इतने देशों से लोग आ गए हैं और अभी भी सीरीया ईराक से आ रहे हैं कि गोरे अब हमको अपने नज़दीक समझते हैं और नए आने वालों को नफरत करते हैं। नए आने वालों को हम भी नफरत कर रहे हैं किओंकि उन्होंने इंग्लैण्ड में इतना गंद पा दिया है कि इंग्लैण्ड किसी थर्ड वर्ल्ड देश की तरह लगने लगा है लेकिन उस समय हमारे साथ भी ऐसा ही हो रहा था। उस समय एक नई पार्टी बन गई थी जिस को NATIONAL FRONT बोलते थे। इन में ज़िआदा युवा लड़के होते थे। यह अपने सर बिलकुल शेव करके रखते थे और बड़े बड़े बूट पहनते थे। इन के सर शेव होने के कारण इन को स्किन हैड बोलते थे। रात के समय यह स्किन हैड क्लब्बों में से निकलते थे और बस्सों पर चढ़ कर बहुत शोर मचाते थे और इंडियन पाकिस्तानी लोगों को किराया भी नहीं देते थे। किराया दे तो बाद में देते थे लेकिन कंडक्टर को तंग बहुत करते थे, वोह देगा यह देगा करते रहते थे ख़ास कर अगर ड्राइवर और कंडक्टर दोनों इंडियन हों तो। कई कंडक्टरों को इन्होने पीटा भी था। ख़ास कर इन लड़कों के साथ जब लड़किआं होती तो उनको इम्प्रैस करने के लिए कंडक्टर के साथ बदसलूकी करते। जब यह गैंगों में होते थे तो इन से डर लगता था।
दो तीन हफ्ते लगातार सुबह की शिफ्ट होती थी और फिर शाम की शिफ्ट आ जाती थी। यह शाम की शिफ्ट में काम तो कम होता था लेकिन रात के दस गिआरा बजे जब यह छोकरे क्लबों से निकलते थे तो एक भय सा लगा रहता था। आज तो मोबाइल फोन हैं लेकिन उस समय सड़कों पर मील दो मील की दूरी पर टेलीफून बूथ होते थे और वहां जा कर पुलिस को टेलीफून करना भी एक समस्या होती थी। जब मैंने बसों पे काम शुरू किया था तो 1965 था। डैपो के रुट बहुत होते थे और 1965 में ही मैंने सारे रूटों पर काम कर लिया था और सारी जानकारी हो गई थी। इस के बाद मुझे एक पक्का रुट और साथी ड्राइवर मिल गिया था जो सभी को यह चांस देते थे। ड्राइवर और कंडकर की जोड़ी बन जाती थी और हमेशा इकठे ही काम करते थे , मेरे ड्राइवर का नाम था harry weaver . हमारी जोड़ी बहुत बड़ीआ थी। वीवर बहुत अच्छा और कमीडियन टाइप का आदमी था और सब को हंसाता रहता था।
वीवर के पास एक पुरानी सी गाड़ी मौरस ऑक्सफोर्ड होती थी जिस में बैठ कर कभी कभी हम वीवर के घर चले जाते और खुद ही ब्रेकफास्ट बनाते जिस में अक्सर बेकन सॉसेज एग्ग और हाइन्ज़ बेक्ड बीन्ज़ होते थे। पहला फ्रिज मैंने वीवर के घर ही देखा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था। कभी-कभी वीवर का लड़का ब्राएन हमारे लिए चाय केक बिस्किट ले कर सड़क पर आ जाता जब हम वीवर के घर के नज़दीक के रुट पर होते थे। इससे मुझे इंडिया की याद आ जाती जब मैं अपने दादा जी को खेतों में खाना देने जाया करता था। मैं वीवर को बताता और वोह हंस पड़ता। बीवर की पत्नी इतना नहीं बोलती थी। एक दफा मैंने अपने मकान के सिटिंग रूम में पेंट करना था। मैंने वीवर को बताया तो उस ने मुझे बताया कि ब्रश से पेंट करने की बजाये मैं स्पौंज रोलर से पेंट करूँ। मैंने हरे और चिट्टे रंग का पेंट किया था और एक दिन वीवर मेरा काम देखने आया। देखते ही वोह हैरान हो गिया कि मेरा काम बहुत ही नीट था और उसका घर भी पेंट करने के लिए मुझे कहा। एक रविवार को मैंने वीवर के घर का फ्रंट रूम भी पेंट कर दिया। उसकी पत्नी इतनी खुश हुई कि मुझे पांच पाउंड देने लगी लेकिन मैंने पैसे लेने से इंकार कर दिया। इसका कर्ज़ा वीवर के लड़के ब्राएन ने वर्षों बाद चुकाया जब वोह बड़ा हो कर कार मकैनिक बन गिया था और बहुत दफा मेरी कार रपेयर की थी और कोई पैसा नहीं लिया था।
वीवर के साथ बहुत अच्छे दिन बीते थे और जब मैं भी ड्राइवर बन गिया था तो भी वीवर मेरे घर आ जाया करता और साथ ही ब्राएन होता था । कभी कभी गर्मिओं के दिनों में मेरे गार्डन के ऐपल ट्री से कुकिंग ऐपल तोड़ कर ले जाया करता था और कुकिंग ऐपल से ऐपल पाई बना कर दे जाता था जो बहुत ही स्वादिष्ट होती थी। कुछ वर्षों बाद मैं क्लीवलैंड रोड डैपो से ट्रांसफर करके पार्क लेन डैपो चले गिया था , तब भी हम मिलते रहे। कुछ वर्षों बाद जब वोह रिटायर हो गिया तो हमारा मिलना तकरीबन खत्म हो गिया था। इस बात को वर्षों बीत गए ,मेरी शादी हुई और बाद में बहुत वर्षों बाद पहले बड़ी बेटी की शादी हुई फिर छोटी बेटी की शादी हुई तो शादी के बाद छोटी बेटी और जमाई ने हनीमून के लिए बर्मिंघम एअरपोर्ट से चढ़ना था। हम सभी दोनों को जहाज चढ़ाने के लिए गए थे। हम कैफे में बैठे बातें कर रहे थे कि दूर से वीवर ने हमें देखा और हमारे नज़दीक आ गिया और मुझे हैलो बोला लेकिन पहले तो मैंने उसे पहचाना नहीं क्योंकि अब वोह बहुत ही बूढ़ा हो गिया था, फिर जब वीवर अपनी पुरानी मुस्कराहट के साथ मुझे बोला, “dont recognize me mister braama !” वीवर हमेशा मुझे ब्रामा कह कर ही पुकारा करता था। मैं भी मुस्करा पड़ा और उठ कर उस के गले लग गिया। हमने बहुत बातें कीं। यह हमारी आख़री मुलाकात थी क्योंकि कुछ ही महीनों बाद वीवर यह दुनिआ छोड़ गिया था।
नवंबर 1966 था और काम पर आते ही बुकिंग क्लर्क ने मुझे एक लैटर पकड़ा दिया जिस पर लिखा था कि मुझे 6 हफ्ते के लिए ड्राइविंग सीखने के लिए ड्राइविंग इंस्ट्रक्टर viki duntun के साथ जाना होगा। यह सुनते ही मैं खुश हो गिया क्योंकि ड्राइवर की तन्खुआह भी ज़्यादा होती थी और इस ड्राइवर के रैंक को भी अच्छा समझा जाता था । डैपो में चार ड्राइविंग इंस्ट्रक्टर होते थे, viki duntun, rawley, joe klansee और एक और था जिस का चेहरा तो मेरी आँखों के सामने है लेकिन नाम याद नहीं आ रहा । सीखने के लिए एक मैं था, एक निहाल सिंह था (निहाल पंद्रां साल पहले अचानक हार्ट अटैक से दुनिआ छोड़ गिया था)] एक पाकिस्तानी जिस को भट्टी बोलते थे (सुना था भट्टी भी यह दुनिआ छोड़ गिया था) और एक गोरा था। क्योंकि अब इलैक्ट्रिक बसें खत्म हो जानी थीं, इस लिए हमें मोटर बस की ट्रेनिंग ही मिलनी थी जो धीरे धीरे बहुत रूटों पर चल भी रही थीं। भाग्य से मेरा इंस्ट्रक्टर विक्की डंटन सबसे अच्छा आदमी था। यह आयरश था और चुरट पीता था।
बिजली पर चलने वाली बसों को टरौली बसज़ कहते थे लेकिन अब इन को धीरे धीरे खत्म करके डीज़ल बसों को लाया जा रहा था। टरौली बसज़ दो तीन सालों में खत्म कर दी गई थी और अब ऐसी बसें कहीं मिऊज़ियम में पडी हैं। जब मैंने शुरू किया था तो काफी रूटों पे यह टरौली बसज़ ही चलती थीं लेकिन जल्दी ही इन का खात्मा हो गिया था। वुल्वरहैम्पटन में आखिर में दो रुट डडली और डार्लेस्टन ही रह गए थे जिन पर टरौली चलती थी। इन बसों पर पर मैंने बहुत काम किया था और यह सब से बिज़ी रुट होते थे। अब हमारी ट्रेनिंग मोटर बस की होनी थी जो सभी डब्बल डैकर थीं । हमारे सारे टयूटर अपने अपने शागिर्दों को बस में बिठा कर बसें सड़क पर ले आये। विक्की मुझे वैस्ट पार्क के पास ले आया क्योंकि यह बहुत चौड़ी रोड थी और पार्क के इर्द गिर्द घूमती थी। विक्की ने मुझे कैब में बिठा दिया और पहले सारा कुछ मुझे समझाया।
इस बस के बारे में कुछ बताना चाहूंगा कि यह guy की बस थी जो हमारे दूसरे डैपो जो पार्क लेन में था वहां नज़दीक ही एक फैक्ट्री गाई मोटर्ज़ में बनी हुई थी। इस बस के इंजन पर छोटा सा स्टील का रैड इंडियन का स्टैचू बना हुआ था . इस फैक्ट्री में हज़ारों लोग काम करते थे और बहुत सालों बाद यह फैक्ट्री ley land ने खरीद ली थी। इस फैक्ट्री के साथ ही ऐवरैडी बैटरी की फैक्ट्री होती थी जिस में कार, बस और रेडिओ के लिए बैटरियां बनती थी। यूं तो यह बस बहुत अच्छी थी लेकिन इस की ख़ास बात यह थी कि इस के क्लच्च को ट्रिपर बोलते थे और इसमें एक खतरा सा होता था। पहले गेअर में डालने के लिए, पहले गेअर सटिक को पहले गेअर में डालकर फिर ट्रिपर (क्लच्च पैडल ) को बहुत जोर से नीचे दबाया जाता था, इस से बस पहले गेअर में हो जाती थी, चाहे पैडल को छोड़ भी दिया जाए । फिर चाहे बस को खड़ी कर लो , यह पहले गेअर में ही रहती थी और इसी तरह दूसरे गेअर में डालने के लिए पहले गेअर सटिक को दूसरे गेअर में डाला जाता था और फिर बड़े जोर से ट्रिपर को नीचे दबाया जाता था और बस दूसरे गेअर में पड़ जाती थी। जब तक ट्रिपर को जोर से दबा कर गेअर सटिक को न्यूट्रल में नहीं लाया जाता था बस उसी गेअर में रहती थी जिस में वोह डाली गई हो। इसमें खतरा यह होता था कि अगर ट्रिपर को अच्छी तरह दबाया नहीं जाता था तो ट्रिपर एकदम बिजली की तेजी से बड़े जोर से ऊपर को आ जाता था और पैर पर इतनी चोट लगती थी कि कई दफा कई कई हफ्ते घर बैठना पड़ता था क्योंकि चोट से पैर सूज जाता था। विक्की ने मुझे समझा दिया था।
अब मैंने बस को पहले गेअर में डाला और ट्रिपर को बड़े जोर से नीचे दबाया तो बस पहले गेअर में हो गई और मैं धीरे धीरे स्टीयरिंग वील को पकड़ कर बस को चलाने लगा। फिर विक्की ने गेअर सटिक नीचे की ओर दूसरे गेअर में डालने को बोला। जब मैंने सटिक को नीचे की ओर किया तो विक्की ने ट्रिपर को जोर से नीचे दबाने को बोला और मैंने दबा दिया और बस दूसरे गेअर में चले गई। अब मैं धीरे धीरे चलाने लगा। इस के बाद मैंने तीसरे और चौथे गेअर में भी डाल दी और पार्क के गिर्द जाने लगा। विक्की बहुत खुश हुआ कि मैंने बहुत जल्दी पिक अप कर लिया था। मैंने कई चक्कर पार्क के इर्द गिर्द लगाए और फिर तेज चलाने लगा। एक लैसन में ही मैंने समझ लिया था। फिर विक्की मुझे दुसरी रोड पर ले गिया। मुझे अपने आप पर भरोसा हो गिया था। विक्की ने मुझे कंट्री साइड में जाने को कह दिया यहां फ़ार्म ही फ़ार्म थे। इन फार्मों में एक पब्ब था जिस का नाम था four ashes . विक्की मुझे वहां ले गिया और कार पार्क में हमने बस खड़ी कर दी। कुछ देर बाद दूसरे ट्यूटर और उन के शागिर्द भी आ पुहंचे। ट्यूटर हमें पब्ब में ले गए और अपनी जेब से हमारे लिए बीयर के ग्लास लिए। उन दिनों ड्यूटी पे बीयर पीना कानून के खिलाफ नहीं होता था। हमने खूब मज़े किये। rawley बहुत मोटा था और हमेशा पाद मारता रहता था जिस पर सभी हंस पड़ते थे। पाद मार कर वोह कहता that s better . हम बहुत हँसते। आखर में हम वापस डैपो आ गए। विक्की ने मुझे well done बोला और दूसरे दिन आने को बोल दिया।
चलता. . . . . . . .
वाह भाईसाहब ! छोटी से छोटी बात को इतनी खूबसूरती से बयान करना आपकी खूबी है. हर बात तत्काल अच्छी तरह समझ में आ जाती है. इससे यह भी पता चलता है कि आप अपने काम के प्रति कितने समर्पित थे. शायद यही आपकी सफलता का राज है. आपको हार्दिक साधुवाद ! काश हममें भी आप जैसा समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा आ जाये.
विजय भाई , धन्यवाद .दरअसल अगर आप मेरा पहला एपिसोड पड़ेंगे तो आप को मालूम हो जाएगा कि मैं खुद घबराता था कि मैं अपनी जीवन कथा कैसे लिखूंगा लेकिन जब शुरू किया तो हर एक बात याद आने लगी है . छोटी छोटी बात लिखने में ही मुझे आनंद आ रहा है और मुझे लग रहा है कि अभी भी मैं बहुत कुछ छोड़ रहा हूँ ,कई बातें बाद में याद आ जाती हैं तो फिर कुछ घुमा कर लिख ही देता हूँ .अब तो मुझे लिखने में भी आनंद आ रहा है .
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त पढ़कर बस के सञ्चालन से सम्बंधित नई जानकारियां प्राप्त की। आपके संपर्क में आये लोगो का भी ज्ञान हुआ। क़िस्त अच्छी लगी। आपका जीवन व्यस्तता, पुरुषार्थ, तपस्या और नई नई बाते सीखने में व्यतीत हुआ। ज्ञान, पुरुषार्थ या तपश्या ही मनुष्य को ऊँचा उठाते है। यदि ज्ञान न हो तो मनुष्य कुछ कर नहीं पाता। आपने अपने काम का ज्ञान बढ़ाया और उससे सुख अर्जित किया। यही जीवन दर्शन लगता है। मेरा जीवन भी अध्ययन करने में ही अधिक व्यतीत होता है। पुरुषार्थ भी कुछ कुछ करता ही हूँ। इससे संतोष रूपी सुख मिलता है। मनुष्य जीवन में आने जाने वाली समस्याएं तो आती जाती रहती है। सादर।
मनमोहन भाई , धन्यवाद . गुरु नानक देव जी ने कहा है कि हमेशा धर्म की कमाई करो ,उस में ही सुख है . कुछ गियानी जी की संगत से और कुछ अपनी स्टडी से मैंने गुरु नानक देव जी की जीवनी से बहुत कुछ परापत किया है . गुरु नानक देव जी ने अपनी चार उदासिओं में धर्म परचार किया लेकिन आखर में करतार पुर आ कर खेती का काम शुरू कर दिया था .रात को वे दीवान लगाते थे और दिन को खेती करते थे . अपने ही तजुर्बे से वोह परचार किया करते थे कि, धर्म की कृत करो , नाम जप्पो और वंड के छको . earning by honest means and equal distribution of wealth , यह ही तो सोशलिज्म है . पड़ना तो मैं भी आप की तरह चाहता हूँ लेकिन ज़िआदा स्ट्रेस ले नहीं सकता . आप के लेखों से मैं समझ सकता हूँ कि आप बहुत ही घोर तपस्य कर रहे हैं . डीप स्टडी भी तो तपस्य ही है .
सही कहा, भाई साहब आपने.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचारों से मुझे पूरी सहमति है। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने समय की विपरीत परिस्थितियों में प्राचीन धर्म को मानने वालों लोगो का मार्गदर्शन किया और उन्हें धर्म में स्थिर रखा। उनका और सभी सिख गुरुओं वा उनके अनुयायियों का हिन्दुओं की रक्षा के प्रति अविस्मरणीय योगदान है। श्री गुरु नानक देव जी और सभी गुरुओं को शत शत प्रणाम हैं। हम सभी को उनके श्रेष्ठ विचारों वा आचरणों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए और उनका अनुकरण करना चाहिए। आपने जीवन में बहुत तप किया है। मैं अपने अध्ययन व ज्ञान के आधार पर मानता हूँ कि देवता व देवपुरुष आप जैसे सज्जन पुरुषों को ही कहते हैं। मुझे आपकी आत्मकथा और प्रतिक्रियाओं को पढ़कर आत्म संतोष व प्रसन्नता का अनुभव होता है। मैं जो तप करता हूँ उसमे मेरा स्वार्थ है वह यह कि शायद इसी से मुझे दोनों जन्मों, वर्तमान, भविष्य तथा उसके भी बाद वालों में, कुछ लाभ ही होगा हानि की कोई गुंजाइस नहीं है। वैसे मैं स्वयं में एक साधारण व्यक्ति हूँ, इससे अधिक कुछ नहीं। अनधिकारी होकर भी मुझे अपने लिए जो हितकर लगता है उसे लिखकर दूसरों को भी पहुँचाने का प्रयास करता हूँ। यह संसार और हमारा शरीर ईश्वर की देन है और उसी को समर्पि त है. आपका हार्दिक धन्यवाद।