गीतिका/ग़ज़ल

“ग़ज़ल”

नफरतों की आग में जलता मिला |
ये शहर पहले से अब बदला मिला |

हम चले थे साथ में बारात के
भीड़ में तन्हा मेरा साया मिला |

आँख भर आई दशा पर आज फिर
या खुद क्यों दोस्त भी बहरा मिला ।

हम समझते मीत ये मेरा ही है
मीत बदला घाव भी गहरा मिला |

हम चले थे मिलने को खुद से सनम
हर तरफ थीं बंदिशें पहरा मिला ।

हम समझते धडकनें तो खुद की हैं
चीर के देखा तो दिल तेरा मिला |

चाह थी “छाया” मिले मुझको घनी
राह का हर इक शजर सूखा मिला |

“छाया”

छाया शुक्ला

छाया शुक्ला "छाया" प्रकाशित पुस्तक "छाया का उज़ास"