लघुकथा : इज्जत
नशे में धुत लड़खड़ाते मित्र को सहारा देकर घर छोड़ने आये सुनील ने याद दिलाया, “देखो जगपाल तुम्हें कितनी बार समझाया है, शराब पीना अच्छी आदत नहीं है इससे न केवल तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ रहा है अपितु रिश्तेदारों, सगे संबंधियों और समाज में भी बदनामी हो रही है।”
“बदनामी ! कैसी बदनामी अरे तुम क्या जानो समाज में हमारी कितनी इज्जत होती है लोग स्पेशल कमरे में बिठाते हैं, दारु, सलाद, नमकीन और अन्य जरुरी सामान इज्जत के साथ वहीं छोड़ कर जाते हैं और हाँ खाना भी वहीं टेबल पर आता है शान से। तुम पीते नहीं हो न तुम क्या जानो कितनी इज्जत करते हैं लोग। अरे तुम्हें तो कोई यह भी नहीें पूछता होगा कि खाना भी खाया है या नहीं।” जगपाल ने लड़खडाती जुबान से जवाब दिया।
“तुम्हारी बात सोलह आने सच है, खाने पीने वालों का मेजबान पूरा पूरा ध्यान रखते हैं। इतना ही नहीं गंदी नाली में गिरने पर उठाया भी जाता है और लड़खड़ाने पर घर तक भी छोड़ा जाता है, जैसे मैं तुम्हें छोड़ने आया हूँ। लेकिन मित्र यह इज्जत नहीं सहानुभूति है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक मरीज के प्रति रखी जाती है, जिस प्रकार एक बीमार व्यक्ति की सुख सुविधा का ध्यान रखा जाता है। और रही बात खाने के लिए पूछने की तो वह इसलिए नहीं पूछा जाता क्योंकि नशा न करने वाला व्यक्ति अपना ध्यान स्वयं रख सकता है, उसे कब क्या चाहिए वह मांग लेता है।” सुनील ने उतर दिया।