कुकुभ छंद
भोर सुरमई छाई नभ पर, रात खोह सूरज फोड़े।
चहक गया तब मन का आँगन, अँखियों ने सपने छोड़े।।
भूल भुलैया रात भई औ, दिन की घड़ियाँ मुँह मोड़े।
हाथ जोड़ प्रभु द्वार खड़े है, पड़े नसीबा अपने रोड़े।।
सूरज अपनी स्वर्णिम आभा, अम्बर से जब बिखराता।
कली-कली पर यौवन चढ़ता, इत-उत भँवरा मँडराता।
छेड़ कली को पवन गई जब, पात्र अंक में शरमाई।
करें निगोड़े भँवरे तब-तब, कलियों की ही रुसवाई।।
— गुंजन अग्रवाल “गूंज”
बहुत खूब .