कविता

कुकुभ छंद

भोर सुरमई छाई नभ पर, रात खोह सूरज फोड़े।
चहक गया तब मन का आँगन, अँखियों ने सपने छोड़े।।
भूल भुलैया रात भई औ, दिन की घड़ियाँ मुँह मोड़े।
हाथ जोड़ प्रभु द्वार खड़े है, पड़े नसीबा अपने रोड़े।।

सूरज अपनी स्वर्णिम आभा, अम्बर से जब बिखराता।
कली-कली पर यौवन चढ़ता, इत-उत भँवरा मँडराता।
छेड़ कली को पवन गई जब, पात्र अंक में शरमाई।
करें निगोड़े भँवरे तब-तब, कलियों की ही रुसवाई।।

— गुंजन अग्रवाल “गूंज”

गुंजन अग्रवाल

नाम- गुंजन अग्रवाल साहित्यिक नाम - "अनहद" शिक्षा- बीएससी, एम.ए.(हिंदी) सचिव - महिला काव्य मंच फरीदाबाद इकाई संपादक - 'कालसाक्षी ' वेबपत्र पोर्टल विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ------ विस्तृत हूँ मैं नभ के जैसी, नभ को छूना पर बाकी है। काव्यसाधना की मैं प्यासी, काव्य कलम मेरी साकी है। मैं उड़ेल दूँ भाव सभी अरु, काव्य पियाला छलका जाऊँ। पीते पीते होश न खोना, सत्य अगर मैं दिखला पाऊँ। छ्न्द बहर अरकान सभी ये, रखती हूँ अपने तरकश में। किन्तु नही मैं रह पाती हूँ, सृजन करे कुछ अपने वश में। शब्द साधना कर लेखन में, बात हृदय की कह जाती हूँ। काव्य सहोदर काव्य मित्र है, अतः कवित्त दोहराती हूँ। ...... *अनहद गुंजन*

One thought on “कुकुभ छंद

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब .

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