स्वास्थ्य

चिकित्सा शिक्षा को अविलम्ब सुपर मेजर शल्य चिकित्सा की जरूरत

यह सत्य कथा है, अत: इसमें रहस्य, रोमांच, रोमांस, हास्य, रोचकता, मनोरंजन आदि मनपसन्द रसों का अभाव आपको खटक सकता है, तदर्थ क्षमा करिएगा. इसमें राष्ट्र की पीड़ा है, इसमें जवाबदारों की अनजाने में हुई भीषणतम अन्देखियां भी दिखाई दे सकती हैं, इसमें विसंगतियों का महाभण्डार है, इसमें कई स्तर पर सतत चल रही मौन साधना का आभास सम्भव है.

कथा एक काल्पनिक रूपक से शुरू करूंगा. यह हमारे अपने प्यारे देश भारत की कथा है. उस समय की कथा है, जब रसोइयों का काफी अभाव था, बाजारों में पकवान बनाकर बेचने वाली दुकानों का एक किस्म से पूरीतरह अभाव था. घर की बहूएँ ही सासूजी के सहयोग और मार्गदर्शन में नियमित रसोई बनाने के साथ साथ किसी प्रसंग विशेष पर सम्मिलित होने वाले सौ – दो सौ मेहमानों का भोजन तैयार करती थी. विवाह के बाद से ही सासू और अन्य पारिवारिक महिलाओं के स्नेहिल और संरक्षणात्मक मार्गदर्शन में बहू का सघन प्रशिक्षण शुरू हो जाता था. उन्हें कम से कम सौ मेहमानों का भोजन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था. सारे व्यंजन बनाने की उनमें स्वाभाविक ललक होती थी, वे स्वादिष्ट भोजन बनाने में सिद्धहस्त मानी जाती थी, उस दृष्टि से ख्याति भी अर्जित करती थी. समय बदला, रसोइयों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी, तरह तरह के पकवान बनाने वालों की भरमार होने लगी. हालात इस कदर बदले कि रसगुल्लों की अलग दुकान, तो कचोरियों की अलग, पेटिस की अलग तो की शिकंजी अलग. कहने का अर्थ है कि हर पकवान की एक अलग और विशिष्ट दूकान. वे मेहमानों और घर के सदस्यों का मन मोहने लगी. मेहमान उन दुकानों और रसोइयों के बनाए व्यंजनों में मनचीता स्वाद पाने लगे. बहुओं पर आगंतुक विशेष मेहमानों के भोजन बनाने का भार कम होने लगा. सच पूछा जाए तो उन पर केवल दैनिक और सादा भोजन की व्यवस्था का दायित्व रह गया था.

विडम्बना और विसंगतियों के महादौर का अशुभारम्भ हुआ. सासूमां और घर के अन्य जवाबदार बुजूर्गों के भोलेपन या नासमझी या अनदेखी अथवा किन्हीं और कारणों के चलते बहुओं को पारिवारिक सदस्यों का भोजन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाना गौण सा हो गया और सौ दो सौ मेहमानों के लिए भोजन बनाने की विधियां सिखाने पर कठोरता के साथ जोर दिया जाने लगा. दूसरी तरफ यह भी हुआ कि प्रादेशिक व्यंजनों ने पूरे देश में अपने पैर पसार लिए तथा विश्वभर के नए नए व्यंजन अपनी भौगोलिक सीमा को लांघते हुए देश में आ गए और मेहमानों को अपनी तरफ लट्टू करने में सफल हो गए. सासुओं ने उनकी विधियां भी बहुओं को सिखाना शुरू कर दी. बहूएँ बहुत हैरान परेशान थीं, क्योंकि वे व्यंजन उन्हें कभी बनाने ही नहीं पड़ते थे, फिर भी मजबूरन सीखना पड़ रहे थे. सीखने के बाद उन्हें एक किस्म की निर्दयी परीक्षा से गुजरना पड़ता था. असफल होने पर फिर शुरुआत से प्रशिक्षण दिया जाता था. जबकि आगंतुक मेहमान उन व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध रसोइयों यानी शेफ या दुकानों से लाए गए व्यंजन ही खाते थे. हजारों तरह के पकवानों की विधियां सीखते सीखते बेचारी बहूएँ परिवार के पांच सात सदस्यों के लिए सादा भोजन विशेषज्ञता के साथ बनाना लगभग भूल सी गई. जैसे एक घड़े में सौ घड़ों का पानी तेजी से उड़ेला जाए तो अन्तत: उसमें एक घड़ा पानी भी पूरीतरह नहीं बचता है, वही हो रहा था. (इस कथा में बहू एम.बी.बी.एस. उपाधिधारी चिकित्सक है, सासूमां एम.सी.आई. है, मेहमान यानी विभिन्न ऑर्गन सिस्टम से सम्बन्धित रोग, रसोइयें बड़े चिकित्सा केन्द्र हैं और अलग अलग रोगों के विशेषज्ञों की क्लीनिक्स मिठाई विशेष के मानक सेवा केन्द्र हैं).

अस्तु, देशभर के सारे मेडिकल कॉलेजों में वह पढ़ाया जा रहा है, जिसका स्टूडेंट्स की भावी चिकित्सक के रूप में दैनिक जीवन की प्रैक्टिस से दूर दूर तक का सम्बन्ध नहीं है. एक एम.बी.बी.एस. डॉक्टर से कोई स्त्री डिलीवरी तो करवा सकती है, परन्तु सिजेरियन या उसके गर्भाशय के कैंसर का उपचार नहीं करवाएगी. आंखों की दो चार बीमारियों का उपचार उससे करवाया जाएगा, अन्य गम्भीर नेत्र रोगों की शल्य चिकित्सा की विधियां न जाने क्यों सिखाई जा रही हैं ? बड़े बड़े हिस्टोपैथोलाजिस्ट जब किसी कैंसर या रेयर बीमारी के कारण कोशिका के स्तर पर होने वाले परिवर्तनों को सही पकड़ने के लिए कठोर साधना के बाद भी कठिनाई महसूस करते हैं, तो उनके चित्र बनाने का समयसाध्य कार्य और उनका रट्टा मारने के लिए एम.बी.बी.एस. के विद्यार्थी को क्यों विवश किया जा रहा है ? क्या कोई रोगी एक एम.बी.बी.एस. डॉक्टर से फोड़ों के अलावा किसी साधारण सी विकृति की शल्य चिकित्सा करवाता है ? क्या क़ानून उसके द्वारा ऐसी कोई शल्य चिकित्सा (एपेंडिक्स, हर्निया, हाइड्रोसिल आदि) किए जाने पर सवाल खड़े नहीं करता है ? शहर शहर, डगर डगर पैथोलॉजी की लेबोरेटरिज हैं, मल-मूत्र, खून-मवाद आदि की जांच एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को बाबा आदम के जमाने की विधियों से सिखाने और उस दौरान रखी जाने वाली सावधानियों को याद रखने के औचित्य पर कोई चिन्तन क्यों नहीं ?

विशिष्ट प्रशिक्षण प्राप्त माइक्रोबायोलाजिस्ट्स के होते हुए अन्य विधा में प्रशिक्षित जवाबदार विशेषज्ञ कौन सा डॉक्टर खुद इत्मीनान से बैठकर रोगी के शरीर के रोगाणुओं की जीवनचर्या या दिनचर्या की बारीकियां देखने माइक्रोस्कोप में अपनी आंखें घण्टों गड़ाएगा ? हमारे देश के विभिन्न जिलों में उपलब्ध संसाधनों से सन्तुलित भोजन बनाने और उपलब्ध जल को पीने के पानी के रूप में शुद्ध करने की बारीकियों को पढ़ाने की बजाय उन्हें कोशिका के स्तर पर क्या क्या अति सूक्ष्म परिवर्तन घटित हो रहे हैं, यह सिखाने के औचित्य पर तो देश के चिकित्सा विज्ञानी गहन चिन्तन करें. एक ज़माने में एम.बी.बी.एस. के पाठ्यक्रम में दस प्रमुख विषय थे, आज ज्ञान के विस्तार के चलते 14 हो चुके हैं और स्टूडेंट्स को 21 विभागों में प्रशिक्षण लेना होता है. साथ ही ज्ञान के विस्फोट के चलते हर विषय की पुस्तकों ने अपने बच्चें पैदा कर दिए हैं यानी पहले जो पुस्तकें एक हजार पृष्ठ की होती थी, वे या तो दो हजार पृष्ठों की हो गई हैं या उन्हें दो वाल्यूम में समेटना पड़ रहा है.

औचित्य पर गहन चिन्तन – मनन किए बिना ही एक घड़े में सौ से ज्यादा घड़ों का पानी बहुत तेजी से (पहले की तरह साढ़े पांच साल में) उड़ेला जा रहा है. प्रथम प्रोफेशनल में 1997 के पहले तक दो बुनियादी और बेहद महत्वपूर्ण विषय होते थे और समय डेढ़ साल का था. अचानक एम.सी.आई. द्वारा तय किया गया कि बेसिक डॉक्टर बनाए जाने का लक्ष्य रखकर प्रशिक्षण दिया जाए, इसलिए पहले प्रोफेशनल को एक साल का कर दिया गया और विषय दो से बढ़ाकर तीन कर दिए गए और इधर अनुसंधानों के चलते सिलेबस की लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई सारी बढ़ गई. कम समय में ज्यादा पढ़ने का बोझ बिना वांछित चिन्तन के 12 वीं उत्तीर्ण कर आए विद्यार्थियों पर लाद दिया गया. मैंने सवाल उठाया तो इस सवाल के जवाब में केवल यह बताया गया कि परिषद् प्रथम प्रोफेशनल को 15 माह का करने वाली है. उस बात को भी 8 साल बीत चुके हैं.

विडम्बना
• पता नहीं क्यों देश की चिकित्सा शिक्षा स्वतंत्रता के 65 साल बाद भी देश के डॉक्टरों को घरेलू नुस्खों, देशज परम्पराओं और रीति रिवाजों के वैज्ञानिक पक्ष पर सोचने के लिए प्रेरित नहीं कर पाई है. जबकि विदेशियों ने इनपर जमकर अनुसंधान किए हैं. अभिमन्यु की कथा को हमने कपोल कथा मान लिया और पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने उसे अपने समयसाध्य शोधों से प्रामाणिक सिद्ध कर दिया. ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं. दादी-नानी की कहानियां मानसिक टीकाकरण करती हैं, इसका वैज्ञानिक आधार हमने नहीं खोजा. शोध इस बात को लेकर किया जाना चाहिए थे कि आयुर्वेदसम्मत दिनचर्या को आखिर विदेशी वैज्ञानिकों ने क्यों इतनी महत्ता दी है. सुबह के सूर्यदर्शन से जब अवसाद और निराशा दूर होती है, तो देश के तरुणों और युवाओं को जल्दी जागने के निर्देश देश के चिकित्सा शिक्षा के तहत प्रशिक्षित चिकित्सक देते तो असफलता की स्थिति में अवसाद के कारण आत्महत्या के रास्ते को नहीं अपनाते.

• अफ़सोसनाक हकीकत यह है कि हमारे डॉक्टरों के दिलोदिमाग में हमारी चिकित्सा शिक्षा यह नहीं भर पाई कि देश की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करना उनका प्राथमिक कर्तव्य है. उलटे एम.सी.आई. एम्स में 1.7 करोड़ रुपयों से तैयार 53% चिकित्सकों को भारतीय चिकित्सा परिषद्, गुड स्टेंडिंग सर्टिफिकेट जारी कर, देश के राजस्व से प्रशिक्षित डॉक्टरों को विदेशों में सेवा देने की सहमति दे देती है l

पेयजल की समस्या के स्थानीय हल पर शोध

• देश के अनेक क्षेत्रों में पेयजल की अनुपलब्धता के चलते 60 से 70 प्रतिशत रोग हो जाते हैं, इसको ध्यान में रखते हुए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जल को किस तरह से कम लागत में पीने योग्य बनाया जा सकता है, इस पर केन्द्रीत शोध अध्ययन अनिवार्य कर, उनके स्थापित और विशेषज्ञ सम्मत परिणामों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. उदाहरणार्थ सहजन के दस बीजों का पावडर बीस लीटर पानी को शुद्ध करने में सक्षम होता है.

और अन्त में

• इस लम्बे आलेख को समेटते हुए मेरा अत्यन्त विनम्र निवेदन है कि एम.बी.बी.एस. की समयावधि इन्टर्नशिप सहित साढ़े चार साल की जाए. उस दौरान उन्हें संवाद कुशलता, नैतिकता, पल्स ऑक्सीमेट्री, न्यूट्रीशनल एसेसमेंट ऑफ़ ए पर्सन, हिस्ट्री टेकिंग, वूंड केयर और डिजास्टर मैनेजमेंट, सिम्पल वूंड रिपेयर, फर्स्ट एड, सामान्य बीमारियों का त्वरित उपचार आदि बहुउपयोगी विधाएं प्रामाणिकता और जवाबदेही के साथ सिखाई जाएं.
• क्रिटिकल केयर का सैद्धांतिक और सम्भव हो तो प्रैक्टिकल ज्ञान,
• आई.वी. / आई.एम. इंजेक्शन लगाना,
• देश में आमतौर पर होने वाली दस पन्द्रह मौसमी बीमारियों का प्रामाणिक क्लीनिकल डायग्नोसिस (निदान) और प्राथमिक रूप से निरापद एलोपैथिक उपचार.
• शिक्षक के मार्गदर्शन में अपने शहर के उन नागरिकों का स्वास्थ्य परीक्षण, जिनका कभी स्वास्थ्य परीक्षण नहीं हुआ हो और उनका स्वास्थ्य पत्रक (हेल्थ कार्ड) बनाने का प्रोजेक्ट.
• हिस्ट्री टेकिंग का विस्तृत ज्ञान,
• डिजास्टर मैनेजमेंट,
• स्थानीय संसाधनों से संतुलित आहार बनाए जाने पर नागरिकों और स्कूली विद्यार्थियों को भाषण देना सिखाना और पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन से स्वास्थ्य चेतना के सामान्य सूत्र बताना.
• इसके अतिरिक्त प्रत्येक एम.बी.बी.एस. चिकित्सक को तत्काल ही ढ़ाई साल का विशेष प्रशिक्षण दिया जाकर अनिवार्य रूप से एम.डी./एम.एस. की उपाधि दी जाए.

(विशेष निवेदन – यह सही है कि मैं शासकीय सेवक हूं, परन्तु इसके पहले मैं भारतीय नागरिक हूं. अतएव मेरा करबद्ध अनुरोध है कि मेरे इस चिन्तन को शासकीय आचरण संहिता का उल्लंघन नहीं माना जाए, मैंने अपने स्तर पर इन तथ्यों को एम.सी.आई. तक पत्रों और आलेखों के माध्यम से पहुंचाने का काम किया है, कुछ नहीं होने पर एक प्रयास के तहत यह प्रयास कर रहा हूं. राष्ट्रसेवा के अतिरिक्त मेरा कोई गुप्त एजेंडा नहीं है. मैं पहले ही मेडिकल स्टूडेंट्स को विवश कर की जा रही अवैध ट्यूशन का विरोध किए जाने का खामियाजा आज तक भुगत रहा हूं और इससे अधिक नुक्सान झेल पाना मेरे लिए असह्य सिद्ध होगा.)

कुछ खास

विसंगतियों और अपेक्षाओं का विहंगावलोकन
फिजियोलॉजी
• फिजियोलॉजी के अन्तर्गत हीमेटोलाजी में पहले साल में ही हरेक विद्यार्थी के सौ सवासौ घंटे ऐसे प्रैक्टिकल में खर्च हो जाते हैं, जिनका बेसिक डॉक्टर के रूप में भविष्य में कभी कोई उपयोग नहीं होता है, क्योंकि जिन विधियों से वे किए और करवाएं जाते हैं, वे बाबा आदम के ज़माने की और समयसाध्य हैं. कुछ प्रैक्टिकल जैसे हीमिन क्रिस्टल, ओस्मोटिक फ्रेजिलिटी, रक्त की स्पेसिफिक ग्रेविटी आदि तो अब इतिहास की वस्तु हो चुके हैं.
• एक्स्परिमेंटल लेब में फ्राग से सम्बन्धित ग्राफ पढ़ाने में घण्टों खर्च हो जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं है.
• ह्यूमन लेब में स्टेथोग्राफी और बाबा आदम के ज़माने की स्पायरोमेट्री एक किस्म के अनावश्यक प्रैक्टिकल हैं.
• अपेक्षा – ह्यूमन लेब में मानव परीक्षण से सम्बन्धित प्रैक्टिकल बढायें जाएं. जैसे न्यूट्रीशनल एसेसमेन्ट, पल्स ऑक्सीमेट्री, डिफ्रंशियल डाइग्नोसिस आदि.
• अपेक्षा – स्टूडेंट्स को टीचर्स और सीनियर्स के मार्गदर्शन में आसपास के गांवों में हर साल दस से पन्द्रह दिन के लिए ले जाकर सभी नागरिकों का क्लीनिकल परीक्षण सिखाया और करवाया जाए. जिसमें नागरिकों का न्यूट्रीशनल एसेसमेन्ट अनिवार्य रूप से किया जाए क्योंकि भारत में कुपोषण राष्ट्रीय शर्म के रूप में प्रतिवर्ष 60% नागरिकों की जान ले लेता है. अर्थात् कुपोषण के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने से अनेक रोग हो जाते हैं.
• अपेक्षा – सभी अंगों और तन्त्रों से सम्बन्धित सामान्य और अपवाद स्वरुप होने वाले रोगों के विषय में तो पढ़ाया जाता है, परन्तु उन्हें स्वस्थ रखने के लिए क्या क्या अपेक्षित है, इसकी स्पष्ट रूपरेखा और विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है. परिणामस्वरूप चिकित्सकों के स्वयं के अंग और तन्त्र स्वस्थ होने के मापदण्ड के अनुरूप नहीं रहते हैं. उदाहरण के रूप में पूर्णतया स्वस्थ युवाओं की वाइटल कैपेसिटी लगभग चार साढ़े चार लीटर होना चाहिए परन्तु 95% मेडिकल स्टूडेंट्स की वाइटल कैपेसिटी ढ़ाई से सवा तीन लीटर मिलती है. इसीतरह मेडिकल स्टूडेंट्स स्पष्ट विज़न के अभाव में हाथठेलों, खोमचों और दुकानों में जाकर वहां बने खाद्य पदार्थ खा लेते हैं, भले ही मक्खियों और गन्दगी का अम्बार हो.
• अपेक्षा – एनाटामी और फिजियोलॉजी के ज्ञान के अनुसार कमोड शौच शैली वैज्ञानिक रूप से कैंसर और अन्य बीमारियों को खुला आमन्त्रण है, जबकि स्क्वेटिंग यानी भारतीय शैली पूर्णतया स्वास्थ्यप्रद है. इस विषय में विस्तृत पढ़ाया जाए.

एनाटामी और पैथोलॉजी

• एनाटामी और पैथोलॉजी के तहत हिस्टोलाजी व हिस्टोपैथोलॉजी के औचित्य पर गहन विचार विमर्श हो. एक कड़वी सच्चाई यह है कि इन्दौर में विश्वसनीय हिस्टोपैथोलॉजिस्ट के रूप में पांच सात विशेषज्ञ ही हैं, क्योंकि उन्होंने अपने काम को सीमित कर लिया है, जबकि शहर में दो तीन सौ पैथोलॉजिस्ट और एनाटामी पढ़े हुए (एम.बी.बी.एस. किए हुए) दो तीन हजार चिकित्सक हैं.
• एनाटामी के ज्ञान के अनावश्यक विस्तार पर पुनर्विचार अनिवार्य है.
• अपेक्षा – एनाटामी के तहत पर्याप्त लाशों पर शरीर की आतंरिक संरचना का ज्ञान अनिवार्य किया जाए. सात से दस स्टूडेंट्स के बीच एक लाश अनिवार्य रूप से हो. वर्तमान में दो से छह लाशों पर 150 स्टूडेंट्स को आंतरिक संरचना दिखाने का कमाल किया जा रहा है.

बायोकेमिस्ट्री

• लगभग सभी प्रैक्टिकल डॉक्टरी जीवन में कभी नहीं करना पड़ते हैं. डेढ़ सौ से अधिक घंटे खर्च हो जाते हैं. उनका सैद्धान्तिक ज्ञान तो थ्योरी की कक्षाओं में दिया ही जाता है.
• थ्योरी के तहत भी अनावश्यक विस्तार को कम किए जाने हेतु विचार विमर्श किया जाए.
• अपेक्षा – देश में अधिसंख्य नागरिकों की गरीबी को ध्यान में रखते हुए, उनके आसपास उपलब्ध वनस्पतियों या अन्य संसाधनों से आधिकारिक और प्रामाणिक रूप से अधिकाधिक पौष्टिक आहार (विशेषरूप से प्रोटीन और विटामिन्स की दृष्टि से) कैसे बनाया जा सकता है और उसकी मानव शरीर में जैव उपलब्धता एवं वास्तविक उपयोगिता पर केन्द्रीत शोध अध्ययन आवश्यक रूप से किये जाना अनिवार्य किया जाए और इन अध्ययनों के परिणामों को समाज में व्यापक रूप प्रदान करने के लिए स्कूलों, पंचायतों और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं की निशुल्क सेवाओं को किसतरह लिया जा सकता है, इस पर गंभीर चिंतन किया जाए. उदाहरण के लिए सुरजना (सहजन, मुरंगा, ड्रमस्टिक) नामक पेड़ की पत्तियों में दूध से ज्यादा प्रोटीन, संतरों से ज्यादा विटामिन सी, केले से ज्यादा पोटेशियम और गाजर से ज्यादा विटामिन ए, दूध से ज्यादा कैल्शियम होता है. चर्बी (वसा) यानी तैलीय पदार्थ की शरीर में क्या उपयोगिता है और उसकी किस रूप में तथा कितनी मात्रा निरापद और अनिवार्य है यह सिखाया जाए और रोगियों या नागरिकों को किसतरह इनकी उपयोगिता के विषय में समझाया जाए. यह भी पढ़ाया जाए कि कौन कौन से विटामिन्स और खनिज कितने तापमान पर कितने प्रतिशत नष्ट हो जाते हैं. पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अपने शोधों में पाया है कि माइक्रोवेव ओवन की इलेक्ट्रोमेग्नेटिक वेव से भोजन के 90% सूक्ष्म तत्व (माइक्रो न्यूट्रीयंट्स) नष्ट हो जाते हैं और खाद्य पदार्थों में कैंसरकारक घातक रसायन पैदा हो जाते हैं, बायोकेमिस्ट्री के तहत यह कभी पढ़ाया ही नहीं जाता है. रिफ़ाइन्ड ऑइल को तैयार करने में घातक रसायनों की उत्पत्ति और सूक्ष्म पौष्टिक तत्वों के सर्वनाश के विषय में भी बताया जाए. वर्तमान में तो इस अज्ञान के कारण बायोकेमिस्ट्री और चिकित्सा विज्ञान के तहत ज्ञानसम्पन्न डॉक्टरों के घरों तक में माइक्रोवेव ओवन और रिफ़ाइन्ड तेलों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. दही और अन्य प्रचलित भारतीय खाद्यों की स्वास्थ्यगत विशेषताओं के विषय में पढ़ाया जाए. कोल्डड्रिंक, सॉफ्ट ड्रिंक, फास्टफूड, जंकफूड, रिफ़ाइन्ड ऑइल, कोशिका के स्तर पर शरीर की बायोकेमिस्ट्री किस कदर बिगाड़ देते हैं यह स्पष्ट सिखाया जाए, फिलहाल तो मेडिकल कॉलेजों में टीचर्स ही कॉलेज में आने वाले परीक्षकों और मेहमानों का इन चीजों से स्वागत करते हैं. ज्ञान के मन्दिर में रोगकारी अन्धकार का शानदार वजूद कहां ले जाएगा, अनुमान लगाया जा सकता है.

फार्मेकोलाजी

• फार्मेसी (मिक्सचर बनाना आदि) और एक्सपेरिमेंटल फार्मेकोलाजी के प्रैक्टिकल करवाना और जर्नल्स को लिखकर भरना पहले से ही पढ़ाई के तनावों से दबे विद्यार्थियों पर एक किस्म का बेवजह का और असंगत (इरिलिवेंट) बोझ है.
• सिलेबस के अनावश्यक विस्तार पर गहन विचार किया जाए.
• अपेक्षा – इसे सेकण्ड प्रोफ. के बाद क्लीनिकल एवं थेराप्युटिक्स के रूप में अंतिम वर्ष में फिर से पढ़ाया जाए, जिससे दवाइयों के क्लासिकल और रेशनल यूज को समझ सकें और क्लीनिकल पोस्टिंग के दौरान रोगियों पर उनका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से देख परख सकें.

माइक्रोबायोलॉजी

• माइक्रोबायोलॉजी के तहत रोगाणुओं के जीवन चक्र और संरचना के विषय में विस्तार से पढ़ाया जाता है, जिनका बेसिक डॉक्टर के जीवन में इतना महत्व और औचित्य नहीं है. औचित्यानुसार इसे कम किया जा सकता है.
• अपेक्षा – ब्रिटेन की नार्थम्बिया यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलाजी के वरिष्ठ प्रोफेसर रॉब रीड ने भारतीयों को ताम्बे के बर्तन में पानी पीते देखकर गहन शोध कर ताम्र पात्र तथा अन्य पात्रों में रोगाणु युक्त जल डालकर उनका 6, 24 और 48 घंटे बाद अध्ययन कर, रोगाणुओं की संख्या की दृष्टि से ताम्रपात्र में रखे जल को श्रेष्ठ निरूपित किया था. हालांकि बायोकेमिकल स्तर पर कॉपर की सूक्ष्म मात्रा कितनी उसमें होती है और उससे क्या लाभ होते हैं, इसपर भी भारत में शोध होना चाहिए, विदेशों में हुए हैं. इसीतरह धार्मिक प्रथा के तौर पर अनेक भारतीय घरों में किये जाने वाले हवन के धुएं से 94% रोगकारी बैक्टीरिया के नष्ट होने के शोध भी सम्पन्न हो चुके हैं. भारतीय परम्पराओं से जुड़ी बैक्टीरियानाशक रीतियों पर शोध को प्रोत्साहन दिया जाए. जैसे तुलसी के पौधे की उपस्थिति का वातावरण में मौजूद रोगाणुओं पर प्रभाव और उसके आसपास के इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फिल्ड का सकारात्मक असर आदि.
• अपेक्षा – माइक्रोबायोलाजी के तहत इस बात को लेकर अनुसंधानों की जरूरत है कि घरेलू नुस्खों का संक्रामक रोगों के रोगाणुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है.
• अपेक्षा – सर्दी खांसी में जिस कढी को दवा के रूप में दादी नानी पिलाती रही हैं, उस भारतीय नुस्खे ने ब्रिटिश वैज्ञानिकों को कढी पर अनुसंधान के लिए विवश किया और कार्क कैंसर रिसर्च सेंटर के इस रोचक और अनूठे अनुसंधान के निष्कर्ष ब्रिटिश जर्नल ऑफ़ कैंसर में प्रकाशित हुए कि कढी, कैंसर जैसे खतरनाक रोग से लड़ने की क्षमता रखती है और प्रमुख शोधकर्ता डॉ. शेरीन मैक्कन ने दावा किया कि कढी में पाए जाने वाले तमाम अवयव कैंसर के इलाज में बहुत उपयोगी हैं, खासतौर पर गले के कैंसर के लिए.

सर्जरी

• इस विषय के तहत शल्य चिकित्सा योग्य विभिन्न बीमारियों के उपचार हेतु कि जाने वाली शल्य चिकित्साओं की तमाम बारीकियां पढ़ाने के औचित्य पर गहन विचार किया जाए.
• अपेक्षा – सिम्पल वूंड रिपेयर, कटे-फटे और जलने से हुए घावों का प्रभावी उपचार, छोटे – बड़े घावों पर टांकें लगाना, फोड़े की शल्य चिकित्सा. अपेंडिक्स, हर्निया, हाइड्रोसिल आदि अन्य सामान्यतया होने वाले रोगों के सटीक निदान यानी डाइग्नोसिस का प्रामाणिक प्रशिक्षण.

गायनी

• गायनी और प्रसूति विज्ञान के तहत शल्य चिकित्सा योग्य विभिन्न स्त्री रोगों के उपचार हेतु कि जाने वाली शल्य चिकित्साओं की तमाम बारीकियां पढ़ाने के औचित्य पर गहन विचार किया जाए.
• अपेक्षा – सामान्य प्रसूति करवाना, तदर्थ आवश्यकता होने पर एपिजियोटामी करना, श्वेत एवं रक्त प्रदर तथा मासिक धर्म की सामान्य बीमारियों का प्रभावी उपचार. तथा सामान्यतया होने वाले अन्य गम्भीर रोगों के सटीक निदान यानी डाइग्नोसिस का प्रामाणिक प्रशिक्षण.
नेत्र रोग

• नेत्ररोग विज्ञान के तहत शल्य चिकित्सा योग्य समस्त के उपचार हेतु कि जाने वाली शल्य चिकित्साओं की तमाम बारीकियां पढ़ाने के औचित्य पर गहन विचार किया जाए.
• अपेक्षा – कंजक्टीवाइटिस, ब्लेफ्राइटीस, फारेन बाडी निकालना, दृष्टिदोष, रिफ्रेक्टीव इरर जानना सिखाना.

नाक, कान और गला रोग विभाग

• अनावश्यक विस्तार का औचित्य
• अपेक्षा – सर्दी-खांसी, टांसिल का संक्रमण, नकसीर फूटना, एलर्जिक राइनाइटिस आदि का प्रभावी उपचार.

अस्थि रोग, निश्चेतना, त्वचा रोग, रेडियोलॉजी, रेडियोडाइग्नोसिस आदि

• इन सभी विषयों का औचित्यानुसार पाठ्यक्रम या सिलेबस तैयार किया जाए.

मेडिसिन और बच्चों के रोगों का विज्ञान

• इन विषयों का औचित्यानुसार सिलेबस में परिवर्तन किया जाए.

इसीतरह समूची चिकित्सा शिक्षा के विषय में वर्तमान सन्दर्भ में विशेषज्ञों के द्वारा गहन चिन्तन, मनन और विश्लेषण किया जाना चाहिए, ऐसा मेरा करबद्ध अनुरोध है.

 डॉ.मनोहर भण्डारी