धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश

ओ३म्

 

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक सभी वैदिक सनातनधर्मी स्वयं आर्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। तब तक हिन्दुओं शब्द का अस्तित्व भी संसार में नहीं था। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत आने पर यह शब्द प्रचलित हुआ। समय के साथ वेदों से दूर जाते और पतन की ओर बढ़ रहे आर्य कहलाने वाले बन्धुओं ने इस गौरवपूर्ण शब्द को भुलाकर हिन्दु शब्द को अंगीकार कर लिया। हिन्दुओं में प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान समय में भी विद्यमान है जो अब गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर यह प्रथा जन्मना हो गई है। इसके कारण हिन्दू समाज का सार्वत्रिक पतन हुआ है। आर्यसमाज के एक शीर्षस्थ विद्वान स्वामी वेदानन्द सरस्वती इस व्यवस्था के अन्तर्गत दलित बन्धुओं के सुधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान पर उपदेश कर रहे हैं और बताते हैं कि तथाकथित शूद्रों की दुर्दशा स्त्रियों से भी अधिक थी। उनमें से बहुसंख्यकों को अस्पृश्य माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने उनको उनके सब अधिकार दिलवाए। महान् इतिहासविद् डा. काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में ‘‘महात्मा बुद्ध से लेकर राजा राममोहनराय तक जिस कार्य (शूद्रोद्धार कार्य) में सफलता प्राप्त कर सके, शास्त्र का आश्रय लेकर दयानन्द ने उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।” स्वामीजी ने इस विषय में केवल उपदेश ही नहीं किये, परन्तु अपने आचारण द्वारा इस कार्य को किया। उदाहरणार्थजब ऋषि उत्तरप्रदेश में विचर रहे थे तो साधुजाति (यह अछूत मानी जाती थी) के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन लाकर दिया। ऋषि दयानन्द ने प्रेमपूर्वक उसका आतिथ्य स्वीकार किया। लोगों ने जब आक्षेप किया कि आपने साधु (एक अछूत) की रोटी खाकर अच्छा नहीं किया तो महाराज ने उन अबोध आक्षेपकत्र्ताओं को प्रेम से बोध दिया कि रोटी तो (अछूत की नहीं अपितु) अन्न की (बनी) थी। यदि वह अपवित्र पदार्थों की बनी हो अथवा पाप की कमाई की हो तो वह निषिद्ध है। वे साधु तो कृषि कर्म करते हैं, परिश्रमी हैं, ये लोग चोरी आदि कुकर्म भी नहीं करते अतः इनके अन्न में कोई दोष नहीं है। (उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घटी अछूतोद्धार की यह अन्यतम घटना है।)

 

शूद्रों (दलित बन्धुओं) के साथ ऋषि के प्रेम के दृष्टान्त अनेक हैं। आर्यसमाज ने ऋषि के इस उपदेश से यह कार्य कर दिखलाया है कि संसार दंग रह गया है। पंजाब में वशिष्ठों, डोमों, मेघों, बटवालों, ओड़ों, रहतियों का उत्थान करके उनको तथाकथित द्विजों के तुल्य यज्ञोपवीतादि का अधिकार दिया गया। इन जातियों के अनेक जन अब गुरुकुल से स्नातक, शास्त्री, बी0ए0, वकील आदि हैं। उनके उत्थान के लिए आर्यसमाजियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा, उसकी एक-दो घटनाओं के द्वारा एमझा जा सकता है।

 

लाला मुन्शीराम जिज्ञासु (पश्चात महात्मा तत्पश्चात् स्वनामधन्य स्वामी श्रद्धानन्द) ने जालन्धर जिले के रहतियों (ये अछूत माने जाते थे) का जातिप्रवेश संस्कार कराया। इस पर पौराणिक भाई बिगड़ खड़े हुए। उनसे और तो कुछ न बन सका, उन्होंने इनका तथा इस कार्य में इनके सहकारी लाला देवराजजी (जालन्धर के कन्या महाविद्यालय की ख्याति वाले) का सामाजिक बहिष्कार करने का विचार किया। लाला देवराज की गहरी नीति से वह सफल न हो सका। तब उन लोगों ने उन सब पुनः प्रविष्ट आर्यों को सार्वजनिक कूपों (कुओं) से जल लेने से रोक दिया। जालन्धर के राजा माने जानेवाले राय शालिग्राम के सुपुत्र देवराज तथा उनके दामाद लाला मुन्शीराम उनके लिए जल भरकर उनके घरों में पहुंचाते थे। यह दृश्य देख विरोधियों की उद्दण्डता नष्ट हो गई।

 

दूसरी घटना कारुणिक है। रोपड़ अछूतोद्धार-कार्य करनेवालों का भी पानी बन्द कर दिया गया था। वे लोग नारहर (नहर) से जल लाते थे। लाला सोमनाथ वहां के एक सम्भ्रान्त आर्य इस कार्य के मुखिया थे। दैवयोग से उनकी वृद्धा माता बीमार पड़ गई। चिकित्सकों ने कहा–इसे कुवें का जल पिलाओ। जब तक यह नहर का जल पियेंगी, अच्छी हो सकेंगी। सोमनाथ द्विविधा में पड़ गये। मातृभक्ति ने उन्हें प्रेरणा की कि वे क्षमा मांग लें और इस पुनीत कार्य से विरत हो जाएं। सोमनाथ जी की माता को जब अपने पुत्र की दुर्बलता का ज्ञान हुआ, तब तत्काल उन्हें बुलाकर उस देवी ने कहा–‘‘देख ! पुत्र सोमनाथ ! मैं जीवन का सब सुख भेाग चुकी हूं। मुझे अब जीने की चाह नहीं रही। तू यदि मेरे लिए स्वधर्मअछूतोद्धार का परित्याग करेगा, तो मेरे प्राण वैसे ही निकल जाएंगे, अतः तू धर्म से मत गिरियो।” सोमनाथ ने माता के उत्साहवर्धक शब्द सुनकर शिथिलता का परित्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि उनको अपनी माता से वंचित होना पड़ा, किन्तु वृद्धा माता सुख एवं शान्ति के साथ मरी। बतलाइए कितनी कठोर तितिक्षा है।

 

एक घटना और भी सुन लीजिए–स्यालकोट जिला में तथा जम्मू रियासत में मेघों की विपुल संख्या बसती थी। मेघ लोग किसी समय जम्मू के राजा थे। डोगरों ने मेघों से जम्मू छीना था। राज्य-भ्रष्ट होकर ये इतने गिरे कि ये अछूत माने जाने लगे। हिन्दू निकालना जानता है, अपने अन्दर डालना नहीं जानता। स्यालकोट के एक आर्य नेता श्री लाला गंगाराम का ध्यान इनकी ओर गया। उन्होंने इनमें कार्य आरम्भ किया और आगे चलकर इनके सुधार-कार्य को व्यवस्थित करने के लिए मेघोद्धार सभा’ की स्थापना की। मेघोद्धार सभा ने स्यालकोट में इनके लिए एक हाईस्कूल स्थापित किया। सरकार से भूमि क्रय करके मुलतान जिला में इनके लिए एक नगर बसाया। इनकी आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए इनमें कई प्रकार के शिल्पों का प्रचार भी किया। वैसे अधिकतर मेघ कृषि तथा वस्त्र-निर्माण का कार्य ही करते हैं। स्यालकोट जिला में जब कार्य सुव्यवस्थित भित्ति पर समझ लिया गया, तो जम्मू के मेघों की ओर सभा का ध्यान गया। जम्मू में पहले भी कार्य हो रहा था। जम्मू के राजपूतों को दयानन्द के सैनिकों का यह पवित्र कार्य न रुचा और उन्होंने इसका विरोध करना आरम्भ किया। विरोध के सभी प्रकार–सामाजिक बहिष्कार आदि प्रयोग में लाये गये, किन्तु ये सब हथियार बेकार सिद्ध हुए। अन्त में राजपूतों ने इस आन्दोलन का, अपने विचार से मूल ही उन्मूलन करने की ठानी। उन्होंने इस आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता महाशय रामचन्द्र पर जम्मू के समीप बटैहरा ग्राम में जबकि वे अपने किसी निजी कार्य पर जा रहे थे, आक्रमण करके लाठियों के बर्बर प्रहारों से जर्जरित करके अपने विचारानुसार मारकर भाग गये। आर्यसामाजिकों को जब इसका ज्ञान हुआ, वे वहां पहुंचे, रामचन्द्रजी को उन्होंने जम्मू के अस्पताल में पहुंचाया, किन्तु रामचन्द्र के भाग्य में अमरता (बलिदान वा शहीदी) बदी थी। वे उन प्रहारों से बच सके।

 

दलितोद्धार के पवित्र कार्य में आई इस प्रकार की कष्टकथाओं की संख्या बहुत बड़ी है। यह सब दयालु देव दिव्य दयानन्द की दया का परिणाम है कि आज दलित वर्ग अपना माथा ऊंचा कर सका है।

 

भारत विभाजन होने पर कुछ-एक स्वार्थी हरिजन नेताओं ने हरिजनों को पापिस्थान में रहने का असत्परामर्श दिया जबकि ये स्वयं भारत में चले आये। मेघों ने अपने ऐसे स्वार्थी नेताओं के परामर्श को ठुकरा दिया और भारत में चले आये। उनमें से पर्याप्त संख्या अलवर जिले में बसी है। उनके धर्मभाव को देखिए। वहां आने पर उन लोगों ने कहाहम पहले अपने मन्दिर तथा कन्या पाठशालाओं के भवनों का निर्माण करेंगे, रहने के घर पीछे बनवाएंगे। आर्यसमाज ने इनके लिए आर्यनगर बसाया। कुएं खुदवाए। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त (पूर्व का उत्तर प्रदेश और वर्तमान में उत्तराखण्ड) में डोमों की शुद्धि के अतिरिक्त नायक जाति का सुधार एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। नायक जाति के लोग अपनी कन्याओं का विवाह न करके उन्हें वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर बाध्य करते थे। आर्यसमाज ने उनमें प्रचार करके उस जाति की काया पलट दी है।

 

यह सब दयालु दयानन्द की दया का मधुर फल है। इस प्रकार भारत के अन्य प्रान्तों में भी दयानन्द की दया ने अपना चमत्कार दिखाया है और अभी तक दिखा रही है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का यह उपदेश आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व अनुयायियों सहित देश के सभी दलित भाईयों को भी पढ़ना चाहिये। हम अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहते हैं कि यदि दलित भाई आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनायेंगे तो उनका सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, शैक्षिक, नैतिक व आर्थिक, सभी प्रकार का सुधार व उन्नति होगी। आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा सिद्धान्त वह पारसमणि है जिसे संसार का कोई भी मनुष्य छूकर साधारण सामान्य स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य मानव बन सकता है और मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हम यह भी बताना चाहते हैं कि आर्यसमाज जन्मना जाति को अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था मानता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों सहित सभी दलित भाईयों व स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी मानता है। सबको विद्या के चिन्ह  यज्ञोपवीत सकेंगी प्रदान करता है। वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सभी आधुनिक विषयों के आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति से अध्ययन का पोषक व समर्थक है। सबको एक समान, निःशुल्क शिक्षा, समान भोजन व वस्त्र दिये जाने के साथ अध्ययन के बाद उनके गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह का पोषक है। ऐसा करके ही भारत का विश्व का अग्रणीय राष्ट्र बनाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को स्वामी वेदानन्द जी का यह उपदेश पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

3 thoughts on “महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश

  • मनमोहन भाई , आर्यसमाज की सुधारक निति को एक टीवी चैनल के जरीए समझाया जा सकता है ,कमजकम एक रेडिओ तो होना ही चाहिए . कल पंजाब की एक खबर देख रहा था कि एक दलत लड़के की टांगें काट दी गईं ,कितनी शर्म की बात है और यह हो रहा है इकीस्वीं सदी में .कैसी उन्ती है यह भारत की !. पंजाब में ही इतने डेरे हैं धर्म गुरुओं के कि लोगों की सोच देख कर दीवार से सर टकराने को जी चाहता है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। देश में प्रेम व शांति का माहौल बनाने के लिए देश में रेडियो पर वैदिक विचारों का प्रचार होना चाहिय परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं दीखता। अभी हम स्वामी रामदेव जी के काम से भी संतोष कर रहे हैं। वह योग, प्रेम और स्वास्थ्य का ही सन्देश देते हैं। उनका अपना प्रभाव भी है। पंजाब में घटी घटना मानवता के लिए शर्मनाक है। इस जैसी घटनाओं से मैं बहुत आहात होता हूँ। चाह कर भी कुछ कर नहीं पाता। विवशता का दुःख है। नाना प्रकार के मत मतान्तर और धर्मों के डेरे मुझे धर्म का विकार दिखाई देते हैं। सबका धर्म तो एक ही है और वह है सत्य, इसके अलावा सब विकार हैं। सादर।

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। देश में प्रेम व शांति का माहौल बनाने के लिए देश में रेडियो पर वैदिक विचारों का प्रचार होना चाहिय परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं दीखता। अभी हम स्वामी रामदेव जी के काम से भी संतोष कर रहे हैं। वह योग, प्रेम और स्वास्थ्य का ही सन्देश देते हैं। उनका अपना प्रभाव भी है। पंजाब में घटी घटना मानवता के लिए शर्मनाक है। इस जैसी घटनाओं से मैं बहुत आहात होता हूँ। चाह कर भी कुछ कर नहीं पाता। विवशता का दुःख है। नाना प्रकार के मत मतान्तर और धर्मों के डेरे मुझे धर्म का विकार दिखाई देते हैं। सबका धर्म तो एक ही है और वह है सत्य, इसके अलावा सब विकार हैं। सादर।

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