कविता : “दर्द” ये उपहार
यू तो मै तुम्हारे बिना नही रह सकती
पर अपने वजुद पर लांछन नही सह सकती
मेरे निस्वार्थ समपर्ण पर तुम्हारे सवाल से
घायल मेरी आत्मा कराह उठती है
एक भरोसा जो रिश्ते की नींव थी
हिल रही है बेवजह तो वजह दे दो
तोड दो सपनो का घरौंदा
छोड दो डगमगाती इस नाव की पतवार
जाओ तुम उतर जाओ उस पार
मुझे छोड दो मझधार
थी यही तुम्हारी नियत
तो संजो कर रखुंगी “दर्द” ये उपहार
— साधना सिंह
मुझे छोड दो मझधार
थी यही तुम्हारी नियत
तो संजो कर रखुंगी “दर्द” ये उपहार ,,,,,,इतनी वफादारी को जो ठुकराएगा वोह अभागा ही होगा .
घन्यवाद bhamra जी