कविता

कविता : “दर्द” ये उपहार

यू तो मै तुम्हारे बिना नही रह सकती
पर अपने वजुद पर लांछन नही सह सकती
मेरे निस्वार्थ समपर्ण पर तुम्हारे सवाल से
घायल मेरी आत्मा कराह उठती है
एक भरोसा जो रिश्ते की नींव थी
हिल रही है बेवजह तो वजह दे दो
तोड दो सपनो का घरौंदा
छोड दो डगमगाती इस नाव की पतवार
जाओ तुम उतर जाओ उस पार
मुझे छोड दो मझधार
थी यही तुम्हारी नियत
तो संजो कर रखुंगी “दर्द” ये उपहार

— साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)

2 thoughts on “कविता : “दर्द” ये उपहार

  • मुझे छोड दो मझधार
    थी यही तुम्हारी नियत
    तो संजो कर रखुंगी “दर्द” ये उपहार ,,,,,,इतनी वफादारी को जो ठुकराएगा वोह अभागा ही होगा .

    • साधना सिंह

      घन्यवाद bhamra जी

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