फिर निकली काऊन की अर्थी…
फिर निकली कानून की अर्थी, फिर मानवता हार गई।
निर्भया तेरी सारी चीखें, सब सिसकी बेकार गई॥
शर्म से पानी हुई भारती, झुक गया भाल हिमालय का।
दर्द से चीख उठी गंगा, ये पाप देख न्यायालय का॥
आंखो मे आंसू भर पूछ रही है बेटी, न्याय कहां है।
सत्तासीनो, नेताओ तुम कुछ तो बोलो न्याय कहां है॥
बात बात में बेटी को, देवी का औहदा देने वालों।
अब चुप क्यूं हो कन्या पूजन कर के, माथा टेकने वालों॥
अब क्यूं नही मशाल जलाते, चीखें मेरी भूल गये तुम।
न्याय की बातें करने वालों, किस गफलत में झूल गये तुम॥
क्या यूं ही मेरे हृद्य के, घावों को रिसने दोगे।
नर पिशाच रूपी उस पशु को, क्या जिन्दा बचने दोगे॥
मौन साध लोगे क्या तुम भी, मेरे दिल की पीडा पर।
या फिर बन आवाज मेरी, आवाज उठाओगे घर घर॥
अब भी गर तुम मौन रहे तो, घडी वही फिर आयेगी।
कोई निर्भया फिर फुटपाथ पे, यूं ही लूटी जायेगी॥
मौन क्यूं हो बोलो, क्या संस्कार सारे दफना बैठे।
या फिर अत्याचार के सम्मुख, तुम भी शीष झुका बैठे॥
बोलो उन नेताओं को, कुछ शर्म हया गर बाकी है।
बदल दो वो कानून, दरिन्दों का जो संगी साथी है॥
या तो फांसी दो, दरिन्दे को क्रूर हत्यारे को।
वरना बंद करो इस, बेटी के सम्मान के नारे को॥
सतीश बंसल