ग़ज़ल : न कोई आशियाना है
अमीरी है तो फिर क्या है हर इक मौसम सुहाना है
ग़रीबों के लिए सोचो कि उनका क्या ठिकाना है।
उसे जो मिल गया था बाप-दादा से विरासत में
अभी तक वो बिछौना है , वही कंबल पुराना है।
किसी फ़़ुटपाथ पर जीना , किसी फ़ुटपाथ पर मरना
कहाँ जाये न इसके घर ,न कोई आशियाना है।
तुम्हारा शहर है फिर भी वही चेहरा है उतरा-सा
हुकूमत भी तुम्हारी है ,तुम्हारा ही ज़माना है ।
मेरे शेरों का क्या मेयार है वो क्या समझ पाये
वांे ज़ालिम है मगर उसको भी आईना दिखाना है।
लुटेरे हम फ़कीरों से भला क्या ले के जायेंगे
कि दिल भी जोगिया है और मन भी सूफ़ियाना है ।
बता दो ज्योतिषी को क्या मेरी क़िस्मत वो बाँचेगा
दुखों से है मेरी यारी , ग़मों से दोस्ताना है ।
तेरे जुल्मो सितम से अब तनिक भी डर नहीं लगता
तेरे खंज़र से मेरे खू़न का रिश्ता पुराना है ।
न कुंडी है, न ताला है, न पहरा है , न पाबंदी
यहाँ पर सब बराबर हैं , ये उसका शामियाना है।
— डॉ डी एम मिश्र
उत्कृष्ट ग़ज़ल !